आओ धम्म समझे
कल हीनयान पर चर्चा हुई थी, आज बुद्ध के महायान पर चर्चा करते है।
महायान:-
महायानी लोग बुद्ध को दिव्य स्वरुप में दर्शन करते है। इनमें से कुछ लोग बुद्ध को दिव्यमानव भावातीत स्वरुप में भी दर्शन करते हैं। इस प्रकार महायान भी कालांतर में प्रमुख छै: यानों में विभाजित हो गये।
1. मंत्रायान
2. बज्रयान,
3. सहजयान,
4. कालचक्रयान
5. सिद्धयान एवं तंत्रयान ।
6. लिंगयान आदि ।
सभी महायानी समस्त प्राणियों के कल्याण के पक्षधर होते है। प्राणी की अविरल सेवा लक्ष्य होता है। ऐसे लोग बुद्ध को आशीम आलौकिक दिव्यशक्ति से परिपूर्ण समझते है। ये लोग बुद्ध पर अत्यंत श्रद्धा रखते हैं। बुद्ध की करुणा और दया का आलंबन करते है। दश पारमिताओं (नैष्कर्मण्यता, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, अधिष्ठान, प्रज्ञा, दान, मैत्रीय, उपेक्षा) को पूर्ण करने केलिए सतत् प्रयत्नशील होते हैं।
महायानी लोग सब प्राणियों के निर्वाण की भावना करते रहते हैं। वे बोधिसत्व के सिद्धान्त को मानते है ।
बोधिसत्व महामानव वर्ग के लोगों का सेवा भाव बुद्धत्व प्राप्ति के लिये किया जाने वाला प्रारंभिक प्रयास होता है। ऐसे व्यक्ति वासनाओं का शोधनकर अपने शरीर को शुद्ध करने का निरंतर प्रयत्न करते हैं। क्रियाशील होकर वे शुद्ध वासनाओं का नाश कर लेते है। परिणाम स्वरुप उनमें लोक कल्याण की ऐषणाओं अथवा विश्वकल्याण की भावना जाग्रत हो जाती है। वे विश्वकल्याण के लिये उद्दत हो जाते है। वे महायानी कहलाते है।
बोधिचित्त अवस्था
बोधिसत्व अवस्था पाने की चाह रखने वाले चित युक्तशरीर में आरंभ से ही दया प्रेम और करुणा का आसीम भंडार सुप्तावस्था में संचित रहता है। ऐसे मनुष्य हिंसा, रक्तपात, व्याभिचार, भ्रष्टाचार छल कपट, आदि अत्याचारों से सर्वथा मुक्त रहते है। क्रोध, लोभ, मोह, द्वेष, रागादि को पराजीत कर देते हैं। उनके अन्दर सभी प्राणियों के प्रति अगाध प्रेम और मैत्रीय भाव होता है। वे करुणाशील और महादयालु और शक्तिशाली होते है। यही मानव की बोधिचित अवस्था है। वे श्रम कर बोधिसत्व अवस्था को प्राप्त करने में समर्थ होते है ।
बोधिसत्व किसे कहते है?:-
ऐसे मानव जिनने ज्ञान की सीमा लांघ ली है.वे दिव्यत्व की श्रेणी में प्रवेश कर जाते है। स्वार्थ निराधार हो जाता है। वे मनुष्य, बुद्ध बनने की प्रथम सीढ़ी पर पदार्पण करते है। बुद्ध बनने की प्रथम पायदान पर आरुढ़ बोधिसत्व, अर्हत् और अर्हत्व से निर्वाण तथा निर्वाण से महानिर्वाण युक्त उच्चतर भूमियों से गुजरने में उन्हें अनेको वर्ष लग जाते है, उसके लिए उन्हें अनेकों जन्म लेने पड़ते हैं। जब कही सम्यक् संबुद्धत्व की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त होती है। अपने स्वार्थ की तिलांजली दे कर सब प्राणियों के कल्याण की भावना करने वाले होते हैं। बहुतो के कल्याण करने वाले होने वाले होने से उन्हें बोधिसत्व कहते है।
बोधिसत्व शुद्ध वासनाओं से युक्त होते है। तब दूसरों के लिये शुद्ध वासनामय होते हैं। यह भी अज्ञान अवस्था होती है। तथापि विश्व की कल्याण भावना भी शुद्ध वासनाओं और एषणाऐ कहलाती हैं। उन्हें भी शुद्ध वासनाओं और एषणाओ से मुक्त होना पड़ता है। तब कहीं उनमे बुद्धत्व प्राप्ति का मार्ग सुगम होता है। सैकड़ों वर्षों की क्रियाशीलता एवं साधना अभ्यास और प्रतिक्षा के कारण बुद्ध बनना अत्यधिक कठिन है | शुद्धाशुद्ध वासनाओं का ह्रास एवं उनका समूल उच्छेदन, भावनाओं का उदय उस पर चलना, शिवत्व (कल्याण) से गुजरना बोधि मार्ग है। यह उत्कृष्ट माना जाता है।
बोधिसत्व शुद्धजीव तत्व का बोध कर शिवत्व का साक्षात्कार कर लेता है किन्तु चितरुपा ( चिद्रुपा) शक्ति की अभिव्यक्ति नही होती है, साथ ही शिवत्व (कल्याण) का आभास होने पर भी शिवत्व (कल्याण) की अभिव्यक्ति नही होती है। इसकी प्राप्ति के लिये शिवत्व (कल्याण) से गुजरते हुए उन्हें बोधिसत्व की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। कम से कम उन्हें दस या दस से अधिक बोधिसत्व भूमि (क्षेत्र) को लांघना पड़ता है। कुशल कर्म करते हुये नौ पारमिताओं को पूर्णकर बोधिसत्व भूमि प्रवेशकर दसवीं प्रज्ञा पारमिता से गुजरते हुए बोधिसत्व, अक्लेश और अज्ञान से मुक्त हो जाते है। वे अन्तिम अवस्था में पूर्णाभिषिक होकर बोधिसत्व बुद्धपद की ओर गमन करते है। बुद्ध बनने की प्रथम सीढ़ी पर पदार्पण करते हैं।
महाबोधि अवस्थाः-
प्रेम करुणा और दयाभाव के कारण बोधिसत्व दूसरे प्राणी के उद्धार के लिए अपने आपके प्राणों को संकट में डाल देते है। प्राणियों के उद्धार के लिए उनकी सेवा में लग जाते है। इसके बाद उनमें प्रेम करुणा और दया आदि में भी स्वार्थ दिखाई देने लगता है। उनमें प्राणियों के कल्याण के साथ, अपने कल्याण का भाव भी क्रियाशील रहता है। अब उन्हें परलौकिक स्वर्ग लोक की अनुभूति होने लगती है। बोधिबीज अब बोधिसत्व अवस्था की ओर प्रसरण करने लगता है। विशुद्ध सत्व बनने की इच्छाऐं उद्भूत हो जाती है। बुद्ध बीज, मनुष्य जन्म की मलीन देह में वह निरंतर अच्छे कर्म एवं साधनों के द्वारा प्रतित्समुत्पाद के नियमों के माध्यम से विपश्यी बनकर अभ्यास के गुणानुरुप रुपान्तरित होते रहता है। फिर वे शोधित होते हुए विशुद्ध सत्व में प्रवेश कर सत्य की गवेषणा करते हुए जरा मृत्यु से गुजरते हुए स्थूल देह में बंद नही होते है।
वे अपने इच्छानुसार विचरण करते हैं। जीव सेवा भी करते रहते है। इनमें असीम शक्ति होती है। इस प्रकार की अवस्था सैकड़ों जन्मों की तपस्या (क्रियाशीलता ) का परिणाम है। अशेष विश्वकल्याण भावना इसका मूलाधार है। इसका लक्ष्य अनन्त है। सिद्धसत्व देह महाकारुणिक होती है. असीम उदार होने से तथा अनन्त ज्ञानावस्था के कारण इसे महाबोधि अवस्था कहते है। अतः ऐसे सत्व प्राणियों के सेवा भाव से प्रेरित होकर अपने भाव को व्यक्त करते हुए कहते है कि:-
त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नाअपुनर्भवम्। कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ।.
...अर्थात् मुझे राज्य की कामना है, न ही स्वर्ग की और न ही में पुनर्जन्म से मुक्ति चाहता हू । दुःख से पीडित प्राणियों के कष्ट दूर करने में में सहायक हो सकूं, यही मेरी कामना है। इस आधार पर अवलोकितेश्वर, मंजुश्री. पद्म संभव, कृष्ण आदि अनेक महासत्वों को बोधिसत्व कहते है। इसी प्रकार आदिदेव भगवान धन्वन्तरी और भक्त हनुमानजी को हिन्दू महायानी धर्म में बोधिसत्व कहा जा सकता है।
बोधिचर्यावतार 8/10 में कहा गया है कि:-
'मुच्च मानेसु सत्वेसु ये ते प्रमोद्यसागराः तैरेचननु पर्याप्त, मोक्षेणा रसिकेन किम् ।।
अर्थात् प्राणियो को दुःख से विमुक्त करने के समय जो आनन्द सागर उमड़ते है, वही पर्याप्त है। रसविहीन मोक्ष का क्या करना? इस प्रकार हिन्दू महायानी भगवानों को बोधिसत्व कह सकते है। इसी तरह बुद्धशासन के अवलोकितेश्वर, सारिपुत्त एवं मोगल्लायन नागार्जुन आदि को महाबोधिसत्व कहते है । बुद्धक्षेत्र (बोधिसत्व मुनि) महाबोधि अवस्था को प्राप्त कर प्रयोजन समाप्त होने पर वह सम्यक् संबुद्ध अवस्था की ओर गमन करते है। और अंत में सम्यक् संबुद्ध अवस्था को प्राप्त करते है। यही अनन्त प्रज्ञमयी अनन्त गुणमयी सम्यक् संबुद्ध अवस्था है। ऐसी अवस्था कल्प अथवा युगों में घटती है।
डाॅ आठनेरिया इंदौर
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