सफर-ऐ-जिन्दगी

सफर-ऐ-जिन्दगी

बरबस ही निकल पड़ा, एक अनजान रास्तों में

न कोई मंजिल न कोई लक्ष्य, न कोई साधन है

अपने पैरों को, अनजान रास्तों में झुलसाया हूँ

आसान नही जीना यहाँ, खुद को उलझाया हूँ

अपना क्या है? बस छोटी सी कुछ जरूरत है 

अपने लिए कम, अपनों के लिए जीता हूँ।


रोज दिन भर जलता हूँ, धूप में झुलसता हूँ 

कभी खुद उलझता हूँ, कभी खुद सुलझाता हूँ

रोज जलता हूँ, ताकि घर को रोशन कर सकूँ

चूल्हा जलता रहे नित्य, कमाने रोज निकलता हूँ

घर की जरूरते इतनी है, कि पूरी ही नही होती

एक पूरी होती नही कि, दूसरी तैयार हो जाती है ।


यही जीवन का सत्य है, बस का सफर है जिंदगी।

रोज लंबा सफर करना है, और कहीं जाना है 

फिर सफर पर जाने का , रोज हिसाब देना है

ऐसे ही चलती है जिंदगी, ऐसे ही दूर तक जाना है

अपनी जरूरतें छोटी है, कम में ही खुश रहता हूँ

परिवार की खुशी के खातिर, जिन्दगी मैं देता हूँ।

*श्यामकोलारे*

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