यहाँ होता है रावन देव पूजा
छिंदवाड़ा जिला के परासिया ब्लॉक में उमरेठ तहसील के ग्राम चारगांव में आदिवासियों के आस्था का केंद्र रावनदेव..यहां आदिवासी लोग अपने पूर्वज पुरखा शक्तिमान कर पिंडी के रूप में रावण देव की पूजा प्रति वर्ष दशहरा के अवसर में करते आ रहे हैं। बहुत स्थान पर आदिवासी समुदाय अपने आराध्य देव के रूप में रावण की पूजा करते है। इनका मानना है कि रावण का आदिवासी समुदाय पर विशेष आशीर्वाद एवं कृपा होती है। आदिवासी समुदाय में बड़ा देव की विशेष पूजा होती है परन्तु यह बड़ा देव के साथ-साथ दशहरा के समय मे इसकी पूजा करते है, रावण मेघनाद एवं कुम्भकर्ण का प्रतीक बनाकर स्थापना करते है एवं उसकी पूजा कर आशीर्वाद प्राप्त करते है। छिन्दवाड़ा जिला आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है जहां बहुत बड़ी मात्रा में यह समुदाय निवास करता है। सभी समुदायों की एक विशेषता होती है, उनका रहन-सहन, रीति-रिवाज, मान्यताओं आदि अपने आप मे एक विशेषता लिए हुई होती है।
छिंदवाड़ा जिले का मेघनाथ मेला
जिला के सभी क्षेत्रों के निवासी अपनी आस्तानुसार अपने आराध्य देव की पूजा अर्चना करते है। जिला की तहसील उमरेठ में प्रतिवर्ष फागुन माह में मेघनाथ बाबा का विशाल मेला का आयोजन किया जाता है और इससे कुछ ही दूरी पर है रैनी धाम है जहां पर भी आदिवासियों का विशाल मेघनाथ बाबा मेला का आयोजन होता है।यहां अलग अंदाज है पूजा करने का आपको बताते चले कि छिंदवाड़ा जिले के मेघनाथ मेला समूचे मध्यप्रदेश में प्रसिद्ध है। रंगपंचमी से भरने वाला प्रसिद्ध मेघनाथ मेला धुरेदी पर्व के साथ शुरू होता है।
उमरेड में मेघनाथ मेला प्रति वर्ष लगता है, आदिवासी परंपरा के तहत मेले का आयोजन कई वर्षों से किया जा रहा है मेले में पूजा करने वालों की मान्यता के हिसाब से मेघनाथ को बलि देने का विधान है, इसके बाद सामुहिक पूजा अर्चना की जाती हैं । पूजा पाठ का दौर पंचमी तक चलता है, यहाँ रंगपंचमी के दूसरे दिन लोग रंग गुलाल से होली खेलते हैं पांच दिवसीय मेले में परंपरा के अनुसार खंडेरा बाबा मेघनाथ मंदिर में पूजा होती है । रंगपंचमी में मेघनाथ की पूजा का अलग ही अंदाज है, बीमारियों और मुसीबत से छुटकारा पाने तथा संतान प्राप्ति के लिए मन्नत पूरा करने के लिए गाजे-बाजे के साथ लोग पहुंचते हैं । इस मेले में खास में बात यहां है कि मेघनाथ पूजा के लिए माला बेची जाती है, इस माला का उपयोग आदिवासी समाज पूजा के लिए करते हैं। महाराष्ट्र के लोग भी होली में इसका उपयोग पूजा में करते जाता है,कक मराठी में इस गाठी कहते हैं ।
आदिवासी संस्कृति में लंका पति रावण और उनके पुत्र मेघनाथ को याद में कड़ा पूजा की जाती है अपराध वश होकर यहां पूजा करने कल या खंडेरा पूजा कहीं जा रही है खंडेरा बाबा शेर और वह वाहिनी मेघनाथ की बहन को कहा जाता है होली को सिम एवं मेघनाथ पूजा को खंडेरा बाबा पूजन के रूप में मनाया जाता है आदिवासी होली को दश पुत्री को तथा आदिवासी समुदाय के आराध्य शिव शंभू को दश विध्वंस के रूप में देखा है जबकि करने या गर्ल मेल को बड़े रावण पूजा के रूप में मनाया जाता है गड़ा त्यौहार रावण और मेघनाथ की मृत्यु को तीसरा के रूप में मनाते हैं माना जाता है की लंका पति की मृत्यु फागुन मास की पूर्णिमा को हुई थी।
रावनवाडा में होती है रावण देव की पूजा, इस जगह है रावण का प्राचीन मंदिर
परासिया के पास रावनवाडा नाम का गांव है जहां पर गांव के पास ऊंची पहाड़ी पर रावन देव विराजमान है यहां एक विशाल मंदिर भी है यहां गांव के बड़े बुजुर्ग लोग बताते है कि रावन देव का स्थान होने के कारण इस गांव का नाम ही रावनवाडा पड़ा है । यहां तक कि रावणवाड़ा गांव में तो रावण का एक प्राचीन मंदिर भी है। जो आसपास के लोगो का एक आस्ता का केन्द्र है।
छिन्दवाड़ा के जमुनिया गांव में होती है रावनदेव कि पूजा
छिन्दवाड़ा जिले के नजदीक करीब 16 किलोमीटर की दूरी पर एक प्राचीन गाँव का जमुनिया जहाँ रावण देव को आराध्य देव जे रूप में पूजा जाता है। यह परंपरा सिर्फ़ जमुनिया गांव तक ही सीमित नहीं है बल्कि जिले के कई अन्य गांवों में भी देखी जा सकती है। छिंदवाड़ा के आदिवासी बहुल इलाकों में रावण को लेकर अलग ही मान्यता है। यहां के लोग रावण को विद्वान, प्रकांड पंडित और शिव भक्त मानते हैं। इसलिए उसकी पूजा करते हैं। छिंदवाड़ा जिले के जमुनिया गांव में नवरात्रि के पावन अवसर पर जहां एक ओर श्रद्धालु देवी दुर्गा की आराधना में लीन हैं, वहीं दूसरी ओर आदिवासी समुदाय के लोग रावण की पूजा कर रहे हैं। जमुनिया गांव शहर से सिर्फ़ 16 किलोमीटर दूर स्थित है। यहां के टंकी मोहल्ला में यह अनोखा दृश्य देखने को मिल रहा है। यहां एक पंडाल में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर भजन-कीर्तन और पूजा-अर्चना की जा रही है, तो वहीं कुछ ही दूरी पर एक अन्य पंडाल में रावण की प्रतिमा स्थापित कर आदिवासी समाज के लोग पूजा अर्चना कर रहे हैं।
आदिवासी समुदाय के लोग रावण को अपना पूर्वज मानते हैं। उनका कहना है कि वे रामायण के रावण की नहीं बल्कि रावणदेव की पूजा करते हैं। जिन्हें वे अपने आराध्य भगवान शिव का परम भक्त मानते हैं। यहाँ जिस प्रतिमा की स्थापना की गई है वे रामायण के रावण नहीं बल्कि हमारे पूर्वजों द्वारा पूजे जाने वाले रावणदेव हैं। यहाँ उनको मानने वाले के अनुसार पिछले कई सालों से हमारे पूर्वज इनकी पूजा करते आ रहे हैं। हमें किसी धर्म से बैर नहीं है। रावनदेव आदिवासी समाज के आराध्य देव हैं।
पातालकोट में है अहिरावण का निवास
कहा जाता हैं कि परासिया तहसील से लगभग 40 किमी की दूरी पर पतालकोट है जहां पर अहि रावन का अपना निवास स्थान होता था तब ही तो इसके आसपास के क्षेत्र में रावन और मेघनाथ जी के प्रतीक स्थल और देवस्थान मिलते हैं ऐसी आदिवासियों की मान्यता रही हैं। यहाँ के आदिवासी समुदाय हर रोज पूजा-अर्चना और अनुष्ठान करते हैं। जिस स्थान पर वे पूजा (प्रार्थना) करते हैं उसे देवघर कहते हैं। आदिवासी महादेव, बड़ादेव, मड़ई, माड़मी माई, धुलादेव, नांदिया, सुरजादेव, अगियादेव को अपने देवी-देवताओं के रूप में पूजते हैं। विशेष पूजा-अर्चना में वाद्य यंत्रों का विशेष प्रयोग किया जाता है। नागदा, टिमकी, शहनाई, चाकुले, सिंगा, तंबूरा, चिकारा, बांसुरी, घुंघरू, खड़ताल, मदार, ढोल, दहक और तुड़िया सामान्य वाद्ययंत्र हैं जिन्हें वे विभिन्न समारोहों और अनुष्ठानों में बजाते हैं। यहां मेघनाथ घाटी का सबसे महत्वपूर्ण मेला है। यह मेला चैत पूर्णिमा (हिंदू कैलेंडर के अनुसार, मार्च या अप्रैल में पूर्णिमा की रात, ग्रह प्रणाली की स्थिति के आधार पर) को मनाया जाता है। इस अवसर पर, आदिवासी एक इच्छा करते हैं और एक बड़े स्तंभ पर घेरा बनाते हैं। जिस स्थान पर मेघनाथ की पूजा की जाती है वह पहले से ही तय है और इसे गांव में एक पवित्र स्थान माना जाता है।
रावण दहन का करते हैं विरोध
आदिवासी समाज के लोग रावण के पुत्र मेघनाद की पूजा भी करते हैं। उन्होंने लंबे समय से रावण दहन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। इसके लिए जिला प्रशासन को कई बार ज्ञापन भी सौंपे हैं। गोंडवाना महासभा ने मांग की है कि समाज खंडराई पेन एवं महिषासुर पेन की पूजा करता है। अतः उनका पुतला देवी की प्रतिमा के साथ विसर्जित नहीं किया जाए। रावण की प्रतिमा हमारे समाज ने स्थापित की है, उसे प्रशासन संरक्षण दे।
9 दिनों तक करते हैं रावण पूजा
जिस प्रकार देवी दुर्गा की स्थापना के समय कलश स्थापित किए जाते हैं, ठीक उसी प्रकार आदिवासी समुदाय के लोगों ने भी रावण की प्रतिमा के समक्ष पांच कलश स्थापित करते हैं। आदिवासी समुदाय के लोग भी 9 दिनों तक रावण की प्रतिमा की पूजा-अर्चना करने के बाद दशहरा के दिन उसका विसर्जन करते है।
0 टिप्पणियाँ
Thanks for reading blog and give comment.