“कहते है जिस देश की शिक्षा जितनी उन्नत होगी वह देश उतना ही विकास करेगा ।“ इसी को ध्यान में रखते हुए आजादी के बाद से शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने के लिए सरकार के द्वारा निरंतर कार्य किया गया; परिणामस्वरूप शिक्षा के प्रति जागरूकता आई है एवं इसकी महत्वपूर्णता को लोग समझने लगे है; इसे जीवन की एक महत्वपूर्ण जरुरत के तौर पर आंकने लगे है । लोगो में शिक्षा के प्रति जागरूकता एवं महत्व को देखते हुए मौकापरस्त लोग इससे फायदा उठाने की ताक लगाये बैठे है; शिक्षा तंत्र में आर्थिक लाभ आंकने वाले स्वार्थी लोगो की नजर जैसे ही गयी उन्होंने लोगो की दुखती नस शिक्षा पर हाथ रह दिया । समय और परिस्थिति को देखते हुए कोई भी व्यक्ति मानों अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी भी हद तक जाने से बाज नहीं आता, बस कैसे भी उसे आर्थिक लाभ होना चाहिए चाहे व नैतिक तरीके से हो या फिर अनैतिक तरीका। यह स्थिति किसी भी क्षेत्र में ले लीजिए चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या फिर स्वास्थ्य क्षेत्र क्योंकि यदि दोनों क्षेत्र में हमारे देश अथवा राज्य की सुविधाएं दुरुस्त नहीं होगी तो हमारा देश अथवा राज्य भविष्य में विकास की ओर उन्मुख नहीं होगा।
ऐसा ही हाल प्राईवेट स्कूलों की शिक्षा का भीं है जहां शिक्षा घरों को शिक्षा के मंदिर के नाम जाना जाता था परन्तु शिक्षा के इस प्राईमरी स्कूलों की दशा इतनी दयनीय है कि इसे किसी ओटी में ले जाकर एक संर्कीण ऑपरेशन की अतिशीघ्र आवश्यकता है। अन्यथा एक आम व्यक्ति का अपने बच्चों को प्राइमरी शिक्षा देना दुर्भर हो जायेगा। सरकार ने पिछले कई दशकों से शिक्षा के उत्थान के लिए न जाने कितनी जद्दोजहत की, परंतु सभी प्रयास असफल ही सिद्ध हुये दूसरी तरफ प्राईवेट स्कूलों का व्यापार इतना फलता-फूलता जा रहा कि प्रत्येक व्यक्ति पाश्चात्य सभ्यता का गुलाम होने के कारण प्राइमरी स्कूल की जरर्र स्थिति, सरकारी स्कूलों के अध्यापकों के ढील मूल रवैया (या फिर किसी सरकारी योजना या फिर जनगणना या फिर जानवरों की जनगणना या फिर इलेक्शन ड्यूटि के चलते) देखते हुये कोई भी अभिभावक अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में प्रवेश दिलाना उचित नहीं समझता। सरकारी परिसर का वातावरण इस प्रकार का हो गया कि आधुनिक शिक्षा पाना संभव नहीं रह गया। हो भी क्यों ना सरकारी अध्यापक तो केवल सरकारी सेवक बन कर रह गया है। सरकारी अध्यापकों की ड्यूटि तो पोषाहार के रजिस्ट्रर पूर्ण करने में ही समाप्त हो जाती है या फिर सरकारी अध्यापकों के अंदर बच्चों को पढ़ाने का उत्साह कम है। सरकारी स्कूलों की उक्त कमजोरी का फायदा प्राईवेट स्कूल उठा कर, अभिभावकों से मन मानी फीस वसूलते हैं। प्रत्येक राज्य के भिन्न-भिन्न प्राईवेट स्कूलों के सिद्धांत, पाठ्यक्रम, नियम कानून सभी एक दूसरे से भिन्न है ।
माह जनवरी से ही प्राईवेट स्कूल में दाखिला की दुकान खुल जाती है, जितना बड़ा और नामी स्कूल उतनी ही डोनेशन की रकम, इन डोनेशन के माध्यम से स्कूलों में साधन और सुविधाए जुटाना आसन हो जाता है और इस सुविधाओं के बल पर डोनेशन प्राप्त कर मोटी फीस पर स्कूलों का व्यापार चलते रहता है । नर्सरी से प्राथमिक कक्षाओं में देखे जिसमे 10-15 पुस्तकों का सेट जो किसी निजी पब्लिकेशन की होती है को बच्चों के पीठ पर टांग दिया जाता है । इस उर्म में बच्चे का जितना वजन नहीं होता उतना बस्ता का बोझ होता है। सरकार बच्चों का यह बोझ कम करने के पीछे लगी हुई है वही प्राइवेट स्कूल अभिभावकों की जेब ढीली करने की ताक पर बैठा है । प्राइवेट स्कूलों की पुस्तकों एवं कापियों के दाम देखकर हर अभिभावकों की त्योरियां चढ़ जाती है, परन्तु करे तो क्या? बच्चों को जो पढ़ाना है इन स्कूलों में, मन मारकर मजबूरी वश स्कूलों की निर्धारित बुक स्टाल से कतार में इन्तजार करने के बाद भी मनमांगी कीमतों में खरीदना पड़ता है, इन महगी पुस्तकों का पैसा चुकाने के बाद ऐसा लगता है मानो कलेजा काटकर दे दिया हो । निजी स्कूलों की महगी ड्रेस, जूता-मोज़े, टाई, बेल्ट, बैग, बोटल, बस किराया, स्कूल विकास शुल्क, परीक्षा शुल्क, अन्य प्रकार के घोषित एवं अघोषित शुल्क, पढ़ाई की मोटी फीस चुकाते-चुकाते एक आम आदमी अपनी सारी पूँजी स्कूल के नाम कर देता है । क्या प्राइवेट स्कूलों का पाठ्यक्रम इतना अच्छा होता है जो सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम को मात देता है; तो हमारे राष्ट्रीय पाठ्यचर्या एवं राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा प्रदत पुस्तकों एवं इसको बनाने वाले विद्वानों के गहन अनुभव एवं अनुसंधान आधारित निर्मित पुस्तकों पर प्रश्नचिन्ह लगेगा? सरकारी स्कूलों की अनिवार्य पुस्तके जिसमे प्राथमिक स्तर पर भाषा, गणित, विज्ञान या पर्यावरण और अंगेजी ये चारो पुस्तकों के अन्दर इतना बाल विकास से संवंधित कौशलों को डाला गया है कि इसके आलावा अन्य पुस्तकों की आवश्यकता ही नहीं जान पड़ती है । परन्तु निजी स्कूलों की संख्या एवं इसमें पाठ्यक्रम देखेंगे तो यदि ज्ञान और अन्य रूप में परोसकर बच्चों को दे दिया गया है ताकि इससे भी कमाया जा सके ।
यदि
हम अच्छे से अपने आसपास देखेंगे कि जितने में बढ़े अफसर लोग है वो सभी लगभग सरकारी
प्राथमिक स्कूल से ही शिक्षा प्राप्त कर उस उच्च कुर्सी पर विराज मान है। जो कि
सरकारी प्राथमिक शिक्षा के स्तर की अनोखी मिशाल है। शिक्षा की बढ़ती दुर्दशा को
देखते हुए गत वर्षों में एक जनहित याचिका दायर कि गई। याचिका पर फैसला सुनाते हुए
माननीय हाईकोर्ट इलाहाबाद ने कहा कि सरकारी खजाने से मानदेय पाने वाले प्रत्येक
व्यक्ति को हर हालत में अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही पढ़ाना अनिवार्य होगा
अन्यथा दंडात्मक कार्रवाई भी हो सकती है। परंतु देखने में तो कुछ ओर ही मिलता है।
यदि गहनता से जांच की जाएं तो शायद अभी तक माननीय हाईकोर्ट के आदेश पर फूल नहीं
चढ़ायें गये होंगे। यदि ऐसा है तो ये माननीय हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना है। जो
हमारे लोकतंत्र पर एक प्रश्न चिन्ह अंकित करता है।
जब हमारा एक देश एक विधान और एक संविधान है तो निजी और सरकारी की चक्की में शिक्षा क्यों पीसी जा रही है । निजी एवं सरकारी शिक्षा को एक समान क्यों नहीं किया जा रहा है । क्या दोनो स्कूलों के पाठ्यक्रमों को अलग-अलग कर निजी एवं सरकारी के बीच में खाई बनाने का कोई शाजिस की जा रही है । सरकारी स्कूलों की शिक्षा एक मजबूरी बनती जा रही है ? 6-14 आयुवर्ग के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभी बच्चों को निःशुल्क शिक्षा मिलेगी परन्तु सरकारी एवं निजी स्कूलों के चक्रव्यूह में फसे अभिभावको को पूर्ण निःशुल्क शिक्षा का अधिकार समझ नहीं आ रहा है । वर्तमान समय में लोगों की मानसिकता इतनी संकीर्ण हो गई है कि लोग अपने अतीत के संस्कारों भूलते जा रहे है और पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में ही भेजना ज्यादा पसंद कर रहे है, ऐसी महगी शिक्षा से बालको में ही निजी एवं सरकारी की भावनात्मक दूरियां बढ़ने लगी है । इसे समय रहते दुरुस्त करने की आवश्यकता है अन्यथा एक समय में यह एक विकराल समस्या बनकर सामने खड़ी हो जाएगी ।
यह लेखक के निजी विचार है l
लेखक ; श्याम कुमार कोलारे, सामाजिक कार्यकर्ता, छिन्दवाड़ा म.प्र., shyamkolare@gmail.com
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