क्या अक्सर खुद को ,
हवाओं से उलझते देखा है
धरती की उमस से डरकर,
तरुवर को भागते देखा है।
अक्सर करते थे नादानी,
बचपन में धूम मचाई है
दुःख के समय भी हँसते थे,
बरबस की प्रसन्नता पाई है।
मत भूलों तुम अपनी शक्ति,
रेत में पानी निकाला है
चिलचिलाती धूप में ,
धरती को पैदल नापा है।
तरकारी-रोटी से अपनी,
खूब भूख मिटाई है
जमीन पर सोकर कर भी,
आनंद की नींद पाई है।
क्या हुआ आज उजाले में,
स्पष्ट नजर नही आता है
जिसमे चलती साँस वो,
बेजान सा नजर आता है।
कहाँ गई वो बूढ़ी चौपालें,
जहाँ न्याय हो जाता था
बूढ़े की बात मानकर,
संकट हल हो जाता था।
माता की ममता में ,
आपना पन बड़ा गाढ़ा था
बाबा की डांट फटकार भी,
बच्चों को बड़ा भाता था।
आज बदल गई हवा प्यार की,
मतलबी हुई दुनियाँ सारी
ईश्वर नही मिलेगा मंदिर,
सिर झुकालो चरण महतारी।
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लेखक
श्याम कुमार कोलारे
छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश
9893573770
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