अंग्रेज़ी के बढ़ते वर्चस्व से घिरती हमारी हिन्दी भाषा देश के लिए एक चिंता का विषय!
(आलेख: श्याम कुमार कोलारे - सामाजिक कार्यकर्त्ता)
हमारे देश भारत में बहुत सी भाषाएं और बोलियां हैं। इसलिए
यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी।
भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने बाईस भाषाओं
को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार
अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र
सरकार ने अपने काम के लिए हिंदी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी
है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है।
इन बाईस आधिकारिक भाषाओं में असमी,
उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती
शामिल हैं। ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिंदी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश
की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है।, इसलिए अंग्रेज़ी के बढ़ते वर्चस्व की स्वाभाविक
चिन्ता भारत को सर्वाधिक है और यह इसलिए नहीं कि अंग्रेज़ी अब केवल भूमण्डलीकरण के
कारण आ रही है, बल्कि इसलिए कि अंग्रेज़ी हमारे देश के पास गत दो सौ बरस से
है, वह
संविधान की भारतीय भाषाओं में शामिल है और शिक्षा में प्राथमिक से विश्वविद्यालय
स्तर तक उसका अध्ययन-अध्यापन कराया जाता है। दूसरे वह हमारे केन्द्रीय शासन और
प्रशासन की भी भाषा है। हमारे देश का प्रधानमंत्री,
जन- नेता होने के बावजूद जब
हमारी भाषा के बजाय अंग्रेज़ी में बोलता, लिखता है तो कहा जा सकता है कि जिस देश की सरकार
स्वयं अंग्रेज़ी के वर्चस्व से दबी हुई है, जिसे अपनी भाषाओं पर गर्व और
विश्वास नहीं है, वह सरकार हमारी भाषाओं को कैसे बचाएगी और अंग्रेजी के खतरे
को या एक-भाषीयता के खतरे को कैसे मिटायेगी?
भोपाल
में आयोजित एक संगोष्ठी में स्व. विद्यानिवास मिश्र ने कहा था कि हिन्दी हमसे छीन
ली जानी चाहिए। जब हिन्दी कोई देश या राज छीन लेगा,
तब जाकर हमें पता चलेगा कि
अपनी भाषा क्या होती है और अपनी भाषा से वंचित होकर हम कितने पराधीन, लाचार और मजबूर हो गए
हैं। अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ाने के लिए तो स्वतंत्रता के बाद न कोई अंग्रेज या
अमरीकी यहाँ अपनी सत्ता लेकर आए, न वे तमाम अंग्रेज़ी भाषी देश आए जहाँ अंग्रेज़ी
का वर्चस्व है। जब जहाँगीर के दरबार में पहली बार सर टॉमस रो आया था तो दो चीजें
साथ लाया था - एक तो व्यापार और दूसरी भाषा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी आई तो वह भी दो
चीजें लेकर आई - वे ही - अर्थात् व्यापार और भाषा । यह स्वाभाविक व्यापारी शर्त
होती है कि वह व्यापार के साथ-साथ अपना वर्चस्व भी बढ़ाने लगती है और यही वर्चस्व
एक दिन राज या साम्राज्य में बदल जाता है। जब साम्राज्य कायम हो जाता है तो पहले
तो वह जिस देश में होता है, उसकी भाषा या भाषाएँ मिटाता है और दूसरे अपनी
भाषा लादता और आजमाता है। यह सभी उपनिवेशों में हुआ ! फ्रेंच, डच, पुर्तगाली जहाँ गए, वहाँ उन्होंने अपनी
भाषा आजमाई, लादी और उस देश में उनकी ही भाषा को हीन या हेय बनाकर अपनी
भाषा को प्रतिष्ठा-प्रतीक बना दिया । यह भारत में हुआ, मगर लातीनी या अफ्रीकी
देशों की तरह हमारी भाषाएँ मिटी नहीं, जिसका सबसे बड़ा कारण यह नहीं था कि हमने अपनी
भाषाओं को बचाया, उनको जीवित रखने का संघर्ष किया या कोई भाषाई खुद्ध लड़ा हो
बल्कि असल बात यह थी कि अंग्रेज़ी हमारे लोक में स्वीकृत नहीं हो पाई, वह भी उस लोक में, जो निरक्षर, पिछड़ा या अनपढ़ कहा
जाता था । निरक्षरता ने लोकभाषाओं और क्षेत्रीय भाषाओं की एक प्रकार से रक्षा ही
की, क्योंकि
अंग्रेज़ी उन लोगों पर छाई जो पढ़े-लिखे थे, शहरी थे और सरकारों में नौकर बनने को तैयार थे।
किसान पढ़ा-लिखा नहीं था, इसलिए अंग्रेज़ी को उसने अपनी भाषा नहीं बनने
दिया, किसान
किसी सरकार का नौकर बनना नहीं चाहता था, इसलिए उसने सरकार की भाषा को भी नहीं अपनाया।
किसान का अपना समाज, अपनी संस्कृति अपना लोकाचार था, इसलिए उसे किसी अन्य
भाषा के जरिए आने वाली संस्कृति की ज़रूरत नहीं थी। आज भी यदि हमारी लोकभाषाएँ
जीवित हैं तो वह हमारे लोक अर्थात् किसान, ग्रामीणजन, मजदूर और आदिवासियों के कारण। हम तो शिक्षा के
नाम पर, व्यापार और नौकरी के नाम पर उनकी भाषा मिटाने को तुले हैं, उन्हें शिक्षित या
साक्षर बनाकर उससे उनकी भाषा - चेतना, उनका भाषा-स्वभाव छीन लेना चाहते हैं। वे
निरक्षर रह कर जितने शिक्षित और समझदार हैं उतने ही हम साक्षर बनाकर उन्हें
स्वार्थी, नासमझ और भाषाविहीन बनाने का काम करेंगे।
एकभाषीयता
भी कोई दुर्गुण नहीं होती बल्कि एकभाषीयता से हमारी भाषिक- राष्ट्र की राष्ट्रीयता
भी बनती है। भाषा ही राष्ट्रीयता का निर्धारण करती है। बहुभाषीयता पहचान नहीं
बनाती। बहुभाषीयता तो हमारे राष्ट्रीय बोध या हमारी देशभक्ति को ऐसी खिचड़ी में
बदल देती है जिसका हर तत्त्व कच्चा रह जाता है। विविधता हमारी विशेषता हो। सकती है, राष्ट्रीयता नहीं।
हमारे अन्दर राष्ट्रीय-स्वाभिमान की कमी का एक बड़ा कारण हमारी बहुभाषीयता ही है।
हम अपना राष्ट्रबोध टुकड़ों में बँट-बँट कर जीते हैं। एक होते ही नहीं, क्योंकि हमारे पास एक
समग्र संवादात्मक भाषा का अभाव है। अंग्रेज़ी से अंग्रेज़ की एकभाषीय अस्मिता भी
है, आत्मविश्वास
भी और राष्ट्रीयता भी । अंग्रेज़ी ही उनकी राष्ट्रीयता है। अपनी इस राष्ट्रीयता का
आत्म-गौरव लेकर वे जहाँ गए वहाँ भाषा के जरिए ही उन्होंने अपना राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक
वर्चस्व कायम किया । जो पढ़े-लिखे थे. अंग्रेज़ी शिक्षा सिखाकर उन्हें नौकरी दे दी, जो साहित्यकार या
बुद्धिजीवी थे उन्हें अपनी भाषा का साहित्य दे दिया । साहित्य पढ़ाने के विभाग खुल
गए और हमें अपनी भाषा का साहित्य हीन लगने लगा । अंग्रेज़ी साहित्य हमारे लिए
प्रिय और प्रतिष्ठा का विषय बन गया।। भारत (आज़ादी के पहले का) तो ऐसा बना दिया कि
अंग्रेज़ी भारत की नई राष्ट्रीयता ही बन गई ।
अंग्रेज़ी
को एक महान भाषा मानना ही होगा। अंग्रेज़ी-भाषी कौम ने उसे महान बनाने के लिए जो
परिश्रम किया, जो प्रचार किया, जो उपनिवेश और साम्राज्य रचा, साहित्य रचा, शोध किया, उसने हमारा स्वदेशी
मनोविज्ञान ही बदल डाला। हमने अपनी पूरी राजनीतिक और बौद्धिक लड़ाई अंग्रेजी
साम्राज्य के विरुद्ध अंग्रेज़ी में ही तो लड़ी। महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और बहादुर
शाह जफ़र अगर अंग्रेज़ी जानते होते तो अंग्रेज़ 1857 में ही हार जाते। हमें
अंग्रेज़ी नहीं आती थी, इसलिए 1857 में युद्ध हम हारे, हमें अंग्रेज़ी आती थी इसलिए
1947 में हम जीते। हम मैदान में हारे मगर टेबल पर जीत
गए वह भी अंग्रेज़ी के माध्यम से। विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर्स, देश के और खासकर
इलाहाबाद के वकील, देश भर के डॉक्टर, नेता, बुद्धिजीवी अंग्रेज़ों से जब भी बौद्धिक रूप से
लड़े, अंग्रेज़ी
में लड़े, गाँधी जी ने गोलमेज बैठकों में अंग्रेज़ी में बहस की, सारे बड़े नेता
अंग्रेजी में अंग्रेज़ों से टकराये, उन्हें कानूनी रूप से और राजनीतिक रूप से टेबल
पर पराजित किया और परिणाम हुआ आज़ादी मिल गई। यह था उस एकभाषीयता का प्रभाव! गाँधी
ने हिन्दी या हिन्दुस्तानी तक की वकालत की थी और यह कहा कि कह दो कि गाँधी
अंग्रेज़ी भूल गया है तो शायद इसलिए कि गाँधी एकभाषीयता की ताकत अंग्रेज़ी के जरिए
पहचान चुके थे और वैसी ताकत हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में बनाकर हिन्दी में
देखना चाहते थे । हमने हिन्दी को संवाद के बजाए विवाद का विषय बना दिया और
बहुभाषीयता की खिचड़ी में आज़ादी के नाम पर हिन्दी भाषा को अपने अहंकार के
पीकदान में थूक दिया। अंग्रेज़ी हटाओ का एक ईमानदार आन्दोलन लोहिया ने ज़रूर किया
था लेकिन अंग्रेज़ हमारे नेता, शासक और प्रशासकों के अन्दर जिस अंग्रेज़ी राष्ट्रीयता
का बीज बो गए. थे, वह अब वृक्ष के रूप में इतना फैल गया है कि न तो कोई भी
राष्ट्रीय आन्दोलन, संकल्प या कानून उस वृक्ष को काट सकता है, न उखाड़ सकता है और न
हमारे अन्दर अंग्रेज़ों जैसा आत्मबल है और न अपनी भाषाओं के प्रति वैसा प्रेम या
गौरव भाव। एक और बड़ा तथ्य यह है कि हम जब भी अपनी राष्ट्रीयता या भाषाई चिन्ता
व्यक्त करते हैं, वह डर या सन्देह के साथ, शिकायत के साथ और पाखण्ड के साथ करते हैं। हमें
डर लगता है कि अंग्रेज़ी नहीं होगी तो क्या होगा,
नौकरी का क्या होगा, बड़े-बड़े वेतनों के
बहुराष्ट्रीय या औद्योगिक पेकेजों का क्या होगा। फिर हमें सन्देह होता है कि कहीं
ऐसा न हो कि हिन्दी वाले दक्षिण पर हावी हो जाएँ या दक्षिण वाले हिन्दी सीखकर
उत्तर या हिन्दी क्षेत्र पर कब्जा कर लें। यह भी सत्य है कि हिन्दी नहीं मिटेगी, चाहे दुनिया भर की
भाषाएँ यहाँ आ जाएँ।
अंग्रेज़ी भले ही उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की जीविका की एक छोटी-सी भाषा बन गई है मगर लोक जीवन की भाषा नहीं बन पाई है। शिक्षा अगर बढ़ी और अंग्रेज़ी ज़्यादा सीखी भी गई तो उससे कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि अंग्रेज़ी एक नौकर या नौकरी की ही भाषा रहेगी वह बेडरूम बाथरूम और किचन की भाषा नहीं बन पाएगी। किसान का हल अपनी ही भाषा में चलेगा, ठेकेदार मजदूर को अपनी ही भाषा में गाली भी देगा और मजदूरी भी देगा, धर्म, कर्म के पण्डे-पुजारी अपनी ही भाषा या संस्कृति आदि में पूजा, पाठ, शादी, विवाह करवाएँगे न कि अंग्रेज़ी में, भले ही शादी और बर्थडे काईस अंग्रेज़ी में हों। अभी अंग्रेज़ी ऐसी भाषा नहीं बनी है जिसमें श्लोक या मंत्र हों। अंग्रेज़ी ही आगे चलकर हिन्दी और भारतीय भाषाओं को बचाएगी भी । तब लोगों को लगेगा कि अंग्रेज़ी हमारी भाषाओं को हड़पने लगी है, तब सरकार और व्यापार की इस हड़प नीति के विरुद्ध फिर कोई 1857 दोहराया जाएगा और फिर किसी नये 1947 का सूर्योदय होगा। ज़रूरत है कि भाषाओं को लड़ने का मुद्दा बनाने के बजाए, पढ़ने का, पढ़ाने का, रचने का और उनमें बसने का मुद्दा बनाया जाए। अगर कम्प्यूटर आज यूनिकोर्ड लाकर सारी दुनिया को रोमनलिपि दे सकता है तो हम अपनी समस्त भाषाओं की एक पेसीग्रेफी या समान लिपि बनाकर भारतीय भाषाओं का यूनिकोड क्यों नहीं कर सकते! हीनताबोध, इच्छाशक्ति का अभाव, डर, सन्देह, शिकायत और मंचीय राजनीति से ग्रस्त देश जब तक एकभाषीयता का अपना राष्ट्रीय मॉडल नहीं रचता, तब तक अंग्रेज़ी का वर्चस्व कायम रहेगा और हम अपना आत्म-दारिद्रय जीते रहेंगे।
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