गाय का महार निकाय से संबन्ध:-
यथा:-3११. ततो च राजा सञ्ञतो, ब्राह्मणे हि रथेसभो।
नेका सत सहस्सियो गावो यञ्ञे अघातयि।।
३१२. न पादा न विसाणेन, नासु हिंसति केनचि ।
गावो एलकसमाना,सोरता कुम्भदूहना।
ता विसानेन गहेत्वान,राजा सत्थेन घातयि ॥
अर्थात् :---
'महारथी रथ ऋषभ राजा जब ब्राह्मणों द्वारा इस प्रकार सूचित किये गये तो उन्होंने अनेक गायों को मारा। उन गायों को मारा जो न तो पैर से और न सींग से किसी की हिंसा करती हैं। गाय तो भेड़ के समान है, सीधी और घड़े भर दूध देने वाली उस गाय को राजा ने सींग पकड़कर शस्त्र से मारा।"
इस प्रकार पूर्व की तरह राजा ने गाय को मारा, उस गाय को जो किसी प्राणी को न तो पैर से और न सींग से मारती है। उस समय ब्राह्मणों ने यज्ञ के गढ़ों को गायों से भर दिया और मंगल वृषभ को बांधकर राजा को यज्ञ स्थल पर ले जाकर कहा--महाराज गोमेध यज्ञ करे। इस प्रकार आपका ब्रम्हलोक प्रशस्त होगा। मंगल कृत्य कर राजा तलवार ले वृषभ सहित अनेक लाखो गायो को मारा। इस प्रकार ब्रह्मण धम्मीय सुत्त मे गोमेध यज्ञ के प्रमाण मिलते है।
महारों के अछूत बनने के तथाकथित कारण:-
भगवान बुद्ध ने गौ की हिंसा से बचाने के लिए गौ को माता का दर्जा दिया। सभी वर्गों से इसे स्वीकार किया। बौद्धकाल के बाद रचित ब्राह्मण, ग्रंथों में गौ को माता ही नहीं बल्कि कामधेनु और मरने के बाद गाय की पूंछ पकड़कर भवसागर पार कराने वाली गौमाता घोषित किया। गाय की पूजा की जाने लगी। गाय को पवित्र कहा।
गाय के जीवित रहने तक उससे प्राप्त गोरस खा पीकर ब्राह्मण, सहित सभी हृष्टपुष्ट होते रहे। ब्राह्मण, आदि सभी वर्ग के लोग अपने माता पिता के मरने पर उनको स्पर्श करते थे, सम्मान करते थे उनका अंतिम संस्कार करते थे। किन्तु गाय के मरने पर वे उसे अपवित्र और अस्पृश्य मानते थे। ब्राह्मण, आदि उच्च वर्ण के लोग मृत गाय के स्पर्श को पाप की संज्ञा देते थे।
बौद्ध उपासक गाय पालते थे वे जीवित और मृत गाय को माता के रुप में मानते थे अहिंसा के पुजारियों ने गाय को अपवित्र या अस्पृश्य नही माना, न ही मृत गाय के छूने को पाप माना। उन्होंने गौ के जीवित और मृत अवस्था में गाय को माता होने का सम्मान दिया । वे मृत गाय को गांव से बाहर कर देते थे। चर्मकार को सूचना देना भी महारों का ही काम था।
कदाचिद् अकाल दुर्भिक्ष काल में कुछ लोगों ने अपनी जीवन की रक्षा के लिए दुर्घटना से अथवा नैसर्गिक रूप से मरी गाय का मांस खाया होगा। इसतरह अकाल में उनकी मृत गौ के मांस ने प्राणों की रक्षा की. उन्होने गौ हिंसा को महापाप माना। अकाल मे अन्य जाति के लोगो ने गाय बैल की बलि देकर या हलाल करके अथवा मारकर तुरंत मारे गये पशुधन का मांस सेवन कर दुर्भिक्ष से अपनी प्राण रक्षा की । महार पर अध्ययन करने वाले सर अलेक्जेंडर राबर्टसन अपने शोध ग्रंथ महार लोक में लिखते है कि हेक्कन में रहने वाले महारों को न केवल सुअर का मांस खाने की मनाही है। बल्कि वे उसका नाम लेने से भी बचते है। सुअर को स्पर्श करना, पालना अथवा उसके मांस को सेवन करना महापाप की श्रेणी में रखा किंतु कुन्बी जाति के लोग सुअर का मांस सेवन करते है। इतना ही नहीं अन्य भौतिक सुख की कामना करने वाली जातियों ने कामवासना को जगाने वाले सुअर को मारकर या हिंसा कर उसके मांस का सेवन करना पाप नही मानते है। अहिंसा के सिद्धांत को मानने वाले महार केवल दुर्भिक्ष में मृतगौमांस का आहार करने से अछूत घोषित किया। वे अछूत हो गये। यह उच्चजातियाँ द्वारा लगाया गया आरोप सर्वथा मिथ्या प्रतीत होता है।
वैसे तो प्राचीनकाल से उच्च जातियों के लोग यज्ञ में बलि देकर भास भक्षण करते रहे है। अथवा शिकार करके या जीवित हिरण, चितल, सांभर, खरगोश, बकरा,भेड, मुर्गा कबूतर बदक आदि प्राणियों की हिंसा करके अथवा मछली झिंगा केकडे आदि अनेक प्रकार के जलचर प्राणियों को मारकर उनके मांस का भक्षण करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं, किन्तु उच्च ही कहलाते है। लेकिन अहिंसक लोग नैसर्गिक मृत्यु को प्राप्त गाय के मांस का आहार करने वाले कुछ लोगों को पुरोहितो ने नीच और शूद्र महार कहा. अस्पर्श्य या अछूत माना यह गलत है। मांग मातंग चमार पासी बलई आदि से संबोधित कर अछूत कहा। उन्हें गांव से बाहर निवास करने के लिए बाध किया। गरीब महार गांव की सीमा से बाहर निवास करने लगे। हिंसा कर मांस सेवन करने वाले समाज उच्च ही बने रहे। ऐसे ऊंचनीच के सिद्धांत को मानना निसंदेह गलत है।
वास्तव में पुरोहितों ने भगवान, भाग्य, भय, पुनर्जन्म, पापकर्म के फल के भुगतने के सिद्धांत को सत्य साबित करने के लिए नियम बनाये। स्मृति ,सूत्र, पुराणो की रचना की। मानव को अछूत बनाने का अनुचित काम किया। विषमता वादी समाज की रचना कर बहुजन मूल निवासियो पर शासन किया।
भगवान, भाग्य, पुनर्जन्म का भय पैदा कर उन्हें मानसिक गुलाम बनाया। प्रताडित किया। निम्नस्तर के कार्य कराये। किन्तु उपरोक्त प्रमाणो से स्पष्ट होता है कि सबसे पहले यज्ञ करने वाले पुरोहित गोमेध यज्ञ कर गोमांस का भक्षण किया, वे अछूत नहीं कहलाये। अलबत्ता भगवान और भाग्य के सिद्धांत के कारण वे श्रेष्ठ ही कहलाये।
डाॅ पी आर आठनेरे
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