मार कबीला का इतिहास, जाने क्या है मार समुदाय

मार कबीला का इतिहास, जाने क्या है मार समुदाय

मार कबीले


बौद्ध साहित्य में भार का इतिहास-किसी भी सभ्यता और संस्कृति का अस्तित्व उसकी सुरक्षा पर निर्भर करता है। राज्य नगर कस्बा गांव की रक्षा भी उसकी सीमा पर निर्भर है। बिना सुरक्षा के कोई भी साम्राज्य दीर्घ कालीन और प्रगतिशील नहीं हो सकता। हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति जो आज अस्तित्व में है वह हमारे पूर्वजों द्वारा दिये गये सुरक्षा बलों के कारण है। बुद्धकाल से पूर्व पालि भाषा जम्बूद्वीप की सर्वमान्य एकमेव बोली जाने वाली भाषा रही है। इस भाषा में प्राचीन मार शासक एवं रक्षा के कार्य करने वाले व्यक्ति को महारट्ठक कहा जाता था। फिर मौर्य काल से लेकर सातवाहन काल तथा हर्षवर्धन काल तक भी पालि भाषा का प्रयोग होता रहा। पालि भाषा में रठि शब्द का अर्थ-राष्ट्र होता है। इस प्रकार महारट्रिक का अर्थ महाराष्ट्रिक हुआ। महारट्ठिक

पद देश के शासक, राज्यपाल या देश के प्रमुख अधिकारी के रुप में होता रहा। वंश परंपरा के अनुसार उक्त पद वंशजों को देने की रही थी। इसी महारट्ठिक पद से मराठा जाति का उदय हुआ है। बौद्ध काल में जाति नही होने के कारण पद से बोध होता रहा। बौद्ध धर्म के पतन होने के बाद जातिवादी व्यवस्था लागू हुई तो ये पद जाति में बदल गया। महारट्ठिक पद जन्मवंश से जाति समूह के रूप में प्रचलित होने लगा। इस तरह महारट्ठिक से मराठा जाति समूह का अंग बन गया। पालि से मराठी भाषा उदित हुई। श्रवणबेलगोला में एक शिलालेख 925 ईस्वी का मराठी भाषा (भाखा) में लिखा हुआ मिला है। इसे पालि से मराठी भाषा का संक्रमण काल कहा जा सकता है। ध्वनि उच्चारण ने महारट्ठिक से महाराष्ट्रिक को जन्म दिया। महाराष्ट्रिक शासक और सुरक्षा कार्य में दक्ष लोग जाति व्यवस्था लागू होने पर सामन्तवादी बन गये। वे सरकारी उच्च पदो पर आशीन लोग उच्चजाति के कहलाने लगे। इस मराठा समूह में अनेक जातियां सम्मलित हुई। जैसे ब्राह्मण, कनबी, कुर्मी,धनगर, कोली, आदि,। कुछ मराठा कबीलो से पृथक हुए लोग गरीबी, अशिक्षा के शिकार हुए। उनके रहन सहन में परिवर्तन हुआ और एक नई जाति समूह का निर्माण हुआ। मूलरूप से मराठा कबिला नागवंशी था। उनसे पृथक हुए मी नाग वंशी हुए । नागवंशी प्राचीन मार्शल जाति रही। वे युद्धकला में प्रवीण होते थे उन्हें राज्य के कोषालय, नगर सीमा, करवा, बस्ति आदि सीमाओं और भूमि खेत आदि का सीमांकन एवं सुरक्षा के कार्य करने के कारण रक्खित कहा जाता था। उनके प्रमुख को महारक्खित कहते थे। इन पदो पर आसीन लोग शक्तिशाली बलिष्ठ  तथा युद्ध कला मे प्रवीण होते थे।महारट्ठिक पद की तरह महारक्खित पद भी जाति के रूप में परिवर्तित हुआ। महारक्खित पद से शाब्दिक परिवर्तन होकर लघुरुप में प्रयोग होने वाला महार शब्द बना। यही वर्तमान में महार जाति का बोधक हो गया। महाराट्ठिक पद महरक्खित पद से ऊंचा माना जाया था इसलिए महार से ऊंचा माना जाता था। अतः मराठा जाति भी महारों से ऊंची मानी जाने लगी।


 यूरेशियनों के पूर्व मार (मल्ल) धर्म और उनका राज्य-


आर्य (युरेशियन -ब्राह्मण) के जम्बुद्वीप में आगमन के पूर्व, इस द्वीप मे माजर कबीलों के राज्य होते थे। मार के राज्यों में मार धर्म का अल्लेख संयुक्त निकाय (4/1/2 से 9 तक) में मिलता है। वैदिक ब्राम्हण धर्म का यज्ञ बलि और यौनसुख सर्वोपरि था। जम्बूदीप के मार कबिलों के प्रमुखो का परम लक्ष्य भी किसी तरह शारीरिक और मानसिक सुख का उपभोग कर  आनन्दमय जीवन जीना प्रमुख था। मानव की प्रवृति के अनुकूल जीना ही मार धर्म (संयुक्त निकाय 22/2/1) की संज्ञा मानी जाती थी। मार धर्म के समर्थक लोग नगर राज्य पाने के लिए युद्ध करत थे। वे यश मान सम्मान यौन सुख पर दौलत अर्जित करने में अपना जीवन समाप्त कर देते थे। सिद्धार्थ गौतम के साथ भी मार राजा के मार सेनापतियों ने युद्ध किया था। सिद्धार्थ में वासना जगाकर बोधिसत्व को हराने के लिए मार राजा ने अपनी तन्हा रागा,अरति नामक तीन पुत्रियों को भी भेजा था । अंत में बोधिसत्व सिद्धार्थ से मारसेनापतियों सहित तीनों पुत्रियों (सुत्तपिटक, संयुक्त निकाय 4/3/5)ने हार मान ली और वे उनके शरण चले गये।

             मार के दस सेनापतिः-

बुद्ध के पूर्व की जातक कथाओं में मारसेना का उल्लेख है। बोधिसत्व सिद्धार्थ जब सत्य की खोज के लिये ध्यान में बैठे थे तब मारना ने आक्रमण किया था। अर्थात् मार नामक लोग जम्बूद्वीप में बुद्ध के पूर्व निवास करते आ रहे थे। मार लोगों में अनेक एवं भांति भांति के भौतिक कामों में दक्ष लोग सम्मिलित थे। ऐसे दक्ष लोगों के समूह को मारसेना कहा गया है। बोधिसत्व सिद्धार्थ ने मार सेना के महासंग्राम में जीत हासिल की थी। मार सहित उनकी सेना ,निर्वाण पथ को उचित नहीं समझते थे। संसार के सुख का भरपूर भोग कर आनंदमय जीवन जीना ही उनके लिए सर्वश्रेष्ठ होता था। मारसेना संसारिक भौतिक सुख को सर्वोपरि मानते थे। मारसेना  के संचालन के लिए खुद्दकसुत्त में दस सेनापतियों का उल्लेख मिलता है।


             मार किसे कहते है:-

 मार= चित्त की अकुशल वृतियों की साकार मूर्ति लुभाने वाले साक्षात् यमराज जैसे मन वाले लोग मार कहलाते है। प्रारंभिक नैसर्गिक अकुशल भौतिक प्रवृति को धारण करने वाला मन जिस शरीर में निवास करता हो उसे मार कहते है। बुद्ध के पूर्व प्राचीन जम्बूद्रीय पर अधिकांश ऐसी ही प्रवृति के मार वर्ग के लोगों का साम्राज्य था। बौद्ध त्रिपिटको में तृष्णा के समुद्र में मार गुण को धारण करने वाली प्रवृति के दस सेनापतियों का उल्लेख है। 

 1. कामदेव वर्ग के सेनापति काममोग द्वारा संचालित वर्ग के लोग मैथुन आदि कामभोग, मौज मस्ती को सर्वाधिक महत्व देते थे। काम क्रीड़ा के माध्यम से आनंद मनाने वाले अर्थात् काम (मैथुन कर्म) को सर्वोपरी स्थान देने वाले लोग, कामभोग में ही आलिप्त रहकर अपना जीवन समाप्त कर देते

थे। दूसरों को भी अपने ही संवर्ग में आने के लिए प्रेरित करते थे। इस वर्ग के प्रमुख को कामसेनापति कहते है। 

2. अरति सेनापति ( असंतोषी वर्ग के सेनापति)- असंतोषी वर्ग के लोग इस समूह में आते है वे कभी भी किसी भी चीज से संतुष्ट नहीं होने की प्रवृति के लोग होते है । इस वर्ग के संचालन करने वाले अरति सेनापति कहलाते है।


3. भूख (हीरा जवाहरात धन दौलत के भूखे लोग) एवं शारीरिक भूख-प्यास न सहन करने वाले लोग अथवा भूखप्यास मन में उत्पन्नकर, उत्तम कार्य में व्यवधान करन एवं कराने वाले समूह के मुखिया को भूख प्यास के सेनापति कहते है। 

4. तण्हा सेनापति (लोभ लालसा वर्ग के सेनापति):- ऐसे वर्ग के लोगो में किसी भी वस्तु को प्राप्त करने का प्रबल लालसा होती है। ये लोग प्रचण्ड लोभी होते है। इस समूह को संचालित करने वाले प्रमुख को तन्हा सेनापति कहते है


5. प्रमाद सेनापति (आलसी और अकर्मन्यणता )- ऐसे लोगो का समूह जो बिना श्रम मेहनत के उदर पोषण करने की कला में प्रवीण होते है। ऐसे वर्ग के प्रमुख को प्रमाद सेनापति कहते है।


6. भय और आतंक फैलाने में दक्ष वर्ग के सेनापतिः- राज्य में भय और आतंक फैलाने का काम करते है। ये भय आतंक पैदा करके अपने लक्ष्य पाने में सिद्धहस्त लोगों के प्रमुख को भय और आतंक सेनापति कहते है। 

7. शंका- मनुष्यों के मन में मतभेद अथवा उत्तम कार्य करने वाले व्यक्ति के मन में शंकाओं को फैलाने के कार्य में माहिर होते है। वे शंका सेनापति कहते है। 

8. मक्खो धम्मो सेनापति (पाखण्ड और हठता से जनता के मन को विचलित करने वाले) :- हठी अंधविश्वासी और पाखण्डी लोग को संचालित करने काले प्रमुख को मक्खो धम्मो सेनापति कहते है।


9. लाभ, यश, सम्मान, प्रतिष्ठा के सेनापतिः-ऐसा वर्ग अपने लाभ के लिए तथा यश, सम्मान, प्रतिष्ठा पाने की प्रवृति के होते है वे लक्ष्य पाने के लिए सब कुछ करने को तैयार रहते है। ऐसा वर्ग स्वहित के लिए, बहुजनों को नष्ट करने में नहीं हिचकते है।

10. स्वरस्तुति कराने में आनंदित होने वाले एवं अन्य अवमानना करने से सदैव अवमानना की प्रवृत्ति के लोगों के सेनापति को स्वस्तुति सेनापति कहते  है।


मार कबीले के निकाय:---

इस प्रकार उपरोक्त गुणों में प्रवीण मार की सेवा में गंधर्व किन्नर कुबेर यक्ष नाग आदि निकाय एवं संवर्ग का समावेश होता है। नर्तन गायन संगीत ठगविद्या फूल सुगंध गुप्त काम कला आदि में प्रवीण लोग मार वर्ग में आते है। भौतिक आनंद वाले सभी संसाधन उनके आधीन रहते थे। इनमें अनेक लोग पाखण्डी भी होते थे। उन्हें कोई हरा नही सकता था, इसके कारण वे लोग अहंकारी और घमण्डी होते थे। कामी, क्रोधी लोभी द्वेषी धन दौलत के भूखे अहंकारी मन के अनुयाई (तृष्णा के आधीन मनुष्य) लोग अपने अपने क्षेत्र में निपुण और अपने कर्म के प्रति कट्टर होते थे। ऐसे विभिन्न गुण एवं कर्म के अनुसार विभाजित भौतिकवादी लोगो को मार कहते थे।


मार संवर्ग (महार्य या पालि भाषा में महाअय्य) में अनेक निकाय आतें थे। अनेक अकुशल कर्म करने में तत्पर एवं कट्टर तथा कुशल कर्मो के विरुद्ध कार्य करने वाले होते थे। कुछ कुशल कर्मी वीर लोग भी मार वर्ग में आते थे। प्राचीन काल में इनके प्रमुखों को मार सेनापति कहा जाता था। मार लोग बोधिसत्व सिद्धार्थ से हार गये थे। इस महासंग्राम में उनकी महा-हार हो जाने के कारण ऐसे वर्ग महार कहलाये। हारने के बाद वे सभी बुद्ध के शरण में चले गये और बुद्ध के उपासक हो गये। इतिहासकारों ने महार वर्ग के प्रमुख घटकों में नागवंशियों को लिया है। सम्राट बिम्बिसार नागवंश के थे। इन्होंने ही धम्म की रक्षा की है वर्तमान में भी धम्म की रक्षा में नाग, यक्ष कुबेर आदि कुल के लोगो ने धम्म के प्रसार में अभूतपूर्व सहयोग किया है।


मार दो शब्दों के मिलने से बना है। म+अर= म से मन तथा अर या अरि = शत्रु का बोध होता है।


उच्च विचार रखने वाले मन के लोगों ने अपने अनुकूल सोच नहीं रखने वाले मन या विचार नही रखने वाले भारतीय मूल के विचार वाले मन को निम्न मन या अनाड़ी कहा। जितने भी कर्मकार अथवा शिल्पकार वर्ग के लोग विदेशी ब्राह्मणों की दृष्टि में अशिक्षित होते थे किंतु वे अपनी भाषा. संस्कृति एवं शिल्प विद्या में दक्ष होते थे। उच्च विचार वाले नियंत्रित मन वाले लोग विदेशी ब्राह्मण होते थे वे ही शासक थे. अत: इन लोगो ने भारत के मूल निवासी निम्न मन वाले लोगों को कर्म और गुणों के आधार पर वर्ग या और निकायों में बांट दिया। बाहर से आये लोगो ने भारतीयमूल के लोगों को निम्न मन या अनाड़ी विचार वाले कहा। तथा इस प्रकार विदेशी स्वयं की उच्च मन के मानने वालों ने भारत के मूल निवासियों को अर शत्रु कहा। मार का बोधक अथवा अर - अरे एवं अरि शब्द शत्रुता का सूचक बना। वहीं यूरेशियनों के आगमन के बाद अर शब्द आर्य अर्थात् श्रेष्ठ कहलाने लगा। इस तरह भारतीय मूल के लोगों की जाति निर्धारण में अर शब्द द्विअर्थी बोधक  हुआ। मार (महार्य) कबीलों की जाति निर्धारण में जाति के अंतिम शब्द के साथ अर लगा कर संबोधित करने की परंपरा भी बन गई। विदेशी शासक तथा इनकी संतानों ने भारतीय मूल के लोगों को शत्रु कहने की परंपरा को स्थापित की। वही वर्ग और जाति के साथ शत्रुता का बोध कराने वाली परंपरा चिरस्थाई हुई। अधिकांश जातियों के अंत मे जैसे;--मह+अर =महार, कुम्ह+अर =कुम्हार, कल + अर= कलार, लोह+अर= लोहार, गुरज् + अर= गुर्जर , किर+अर= किरार, पव+अर= पवार, अहिरव+अर= अहिरवार, सुन+अर =सुनार, ताम्रक=अर=ताम्रकार

चम+अर= चमार, डुम+अर-डुमार, गव+अरि=गवारी, शंखव+अर= शंखवार, धीवर या रायकव+अर= रायकवार, कांसे पितल के बर्तन बनाने वाले कसार, आदि-आदि । अर- अरि शब्द लगाने की परंपरा आज भी पाई जाती है। दूसरे अर्थ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यों से हारने पर अपना से दूरी बनाते हुए, उनसे संबंध स्थापित करने हेतु तथा जिस शिल्पकला में दक्षता या श्रेष्ठता होने से शिल्पी मूल निवासियों की जातियों के अंत में अर्थ शब्द को जोड़ दिया। जैसे:- मह+अ+र+य= महार्य, कुम्भ + अ+र+य= कुम्भार्य, लोह + अ+र+य= लोहार्य, चम+अ+ र+य = चमार्य आदि ,वे सब भारत के मूलनिवासियों की जातियां पहले एक ही मार वर्ग के आधीन ही नियंत्रित होती थी। जैसा कि उपरोक्त कथन से स्पष्ट होता है कि मार प्राचीन शासक वर्ग था। भौतिक सुख को पाना उनके जीवन का उद्देश्य होता था। वे धन दौलत अर्जित करने के लिए, लोभ और यश की प्रगाढ़ इच्छा होने से आपस में युद्ध करते रहते थे। युद्ध करके छोटे छोटे राज्य को जीत लेते थे। वे भूपति हो गये थे। इन वर्ग के कबीले शासकों के पास बड़े बड़े हार अर्थात् खेत होते थे। कृषि कार्य में निपुण थे। इसलिए कबीले प्रमुख, भूपति महा-हार =बड़े-बड़े हार = खेत वाले होते थे। इन जातिवर्ग के सेनापति को मारसेनापति कहते थे।

यूरेशियनों के आगमन के बाद अर शब्द पालि के समकक्ष अय्य रुप में प्रयोग में लाया जाने लगा। अर्थ भी बदला, अब अय्य शब्द संस्कृत में आर्य के रूप में परिवर्तित हुआ और इसका अर्थ श्रेष्ठ हो गया। जबूद्वीप के मूलनिवासी मार (महार्य) विदेशियों ने इनको हराकर अपने आधीन कर लिया । इसके बाद भारत के मूलनिवासियों को विदेशी मूल के शासक ने शिक्षित संगठित अपनी भाषा रीतिरिवाज आदि में उच्च विचार रखने वाले लोगों को जातियों में बांट कर आपस में भी मिलने नही दिया। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर ऐसा माना जाता है कि बुद्ध के पूर्व ये सभी वर्ग मारसेना के अधीन ही नियंत्रित होते थे। पूर्व में नाग एवं असुर यक्ष लोग मार वर्ग के अंतर्गत ही आते थे । इस महावर्ग को मार =महार कहते है जंबूद्वीप के रक्षक मूलनिवासी महाश्रेष्ठ (सर्वश्रेष्ठ) मार (महार्य) कबीले महार है । महार, विदेशी यूरेशियनों का प्रतिद्वन्दी (महाशत्रु) का बोध कराता है।

डाॅ आठनेरे

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