शिक्षा या सहारा: बच्चों के लिए ट्यूशन और कोचिंग क्लास बनती जा रही बैसाखी
वर्तमान
समय में शिक्षा के क्षेत्र में तीव्र गति से परिवर्तन हो रहे हैं। बच्चों के लिए
स्कूल वह स्थान है जहाँ वे अपने सीखने के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष बिताते हैं।
प्रारंभिक शिक्षा और जीवन कौशलों की नींव भी यहीं रखी जाती है। एक समय था जब बच्चे
स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ घर पर माता-पिता या बुजुर्गों की सहायता से अपनी शिक्षा
पूरी कर लेते थे। स्कूल और घर के बीच संतुलन बनाकर वे स्वयं को मजबूत बना लेते थे।
लेकिन आज स्थिति बदल गई है। ट्यूशन और कोचिंग कक्षाएं अब बच्चों के जीवन का अभिन्न
हिस्सा बन चुकी हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि ये सहायक माध्यम अब बच्चों के लिए
‘बैसाखी’ बनती जा रही हैं। जैसे किसी शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति के लिए बैसाखी
चलने का सहारा होती है, उसी
प्रकार आज अधिकांश बच्चे अपनी पढ़ाई के लिए ट्यूशन और कोचिंग पर निर्भर होते जा
रहे हैं।
शिक्षा
प्रणाली में बदलाव और ट्यूशन का प्रचलन अब जरूरत कम फैशन ज्यादा बनता जा रहा है।
पिछले कुछ दशकों में हमारे देश में शिक्षा का स्तर तो बढ़ा है, लेकिन उसके साथ ही प्रतिस्पर्धा का स्तर भी आसमान छूने लगा
है। अभिभावकों का मानना है कि केवल विद्यालय की शिक्षा अब पर्याप्त नहीं है। बोर्ड
परीक्षाएं, प्रतियोगी परीक्षाएं
और बेहतर करियर के लिए अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता है। यही कारण है कि ट्यूशन और
कोचिंग इंडस्ट्री तेजी से फल-फूल रही है। वर्तमान में ट्यूशन और कोचिंग संस्थान
केवल कमजोर छात्रों के लिए नहीं बल्कि मेधावी छात्रों के लिए भी अनिवार्य समझे
जाने लगे हैं। यहां तक कि छोटे बच्चों, जो अभी प्राइमरी कक्षाओं में पढ़ते हैं, उन्हें भी ट्यूशन भेजा जाने लगा है। यह सोच अब आम हो गई है
कि "अगर बच्चा ट्यूशन नहीं पढ़ेगा तो वह पीछे रह जाएगा।"
ASER‑2022 की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में कक्षा 1–8 के छात्रों में निजी ट्यूशन लेने की दर शिक्षा की गुणवत्ता
और प्रतिस्पर्धा में वृद्धि के साथ-साथ बच्चों द्वारा अतिरिक्त शैक्षणिक सहायता
लेने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। वर्ष 2010, 2014 और 2018 में
यह प्रतिशत लगभग स्थिर रहा — सरकारी, निजी और औसतन सभी श्रेणियों में केवल 22.5%
बच्चे ही ट्यूशन लेते थे। लेकिन वर्ष 2022 में यह आंकड़ा उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है। सरकारी स्कूलों में
यह प्रतिशत बढ़कर 30.9%, निजी स्कूलों में 29.7%,
और कुल औसतन 30.5%
तक पहुँच गया है। यह ट्रेंड इस बात का संकेत है कि स्कूल
शिक्षा के अतिरिक्त, अब
ट्यूशन भी शिक्षा का अहम हिस्सा बनता जा रहा है। नीति-निर्माताओं और शिक्षकों को
इस विषय पर विचार करना होगा कि कैसे स्कूल शिक्षा को इतना मजबूत बनाया जाए कि
बच्चों को बाहरी सहायता की आवश्यकता न पड़े। इसके पीछे कई कारण हो सकते है, जिसको
हम नजरअंदाज नही कर सकते। बच्चों के रिजल्ट में बढ़ती प्रतिस्पर्धा इसका मुख्य कारण
है। हर अभिभावक चाहता है कि उनका बच्चा कक्षा में अव्वल आए और अच्छे कॉलेज में
दाखिला ले सके। शिक्षकों का व्यक्तिगत ध्यान न दे पाना भी एक कारण हो सकते है, सरकारी
और निजी स्कूलों में एक कक्षा में छात्रों की संख्या अधिक होती है, जिससे प्रत्येक छात्र पर व्यक्तिगत ध्यान नहीं दिया जाता है,
जिससे बच्चों में पिछड़ापन बना रहता है। आज के समय में माता-पिता दोनों नौकरीपेशा
हैं और बच्चों को पढ़ाने के लिए समय नहीं निकाल पाते। परीक्षा आधारित शिक्षा
व्यवस्था: हमारी शिक्षा प्रणाली में आज भी अंकों को ज्यादा महत्व दिया जाता है। इस
कारण अभिभावक और बच्चे दोनों अतिरिक्त मदद लेना चाहते हैं।
यह
विचार करना आवश्यक है कि क्या वास्तव में ट्यूशन और कोचिंग बच्चों के लिए एक सहारा
हैं या वे शिक्षा के मूल उद्देश्य को बदल रहे हैं। बच्चे स्वयं पढ़ाई करने के बजाय
हर विषय के लिए ट्यूशन पर निर्भर हो रहे हैं। इससे उनमें आत्मनिर्भरता और समस्या
सुलझाने की क्षमता का अभाव पैदा हो रहा है। कोचिंग और ट्यूशन में अकादमिक सफलता पर
ज्यादा जोर होता है। बच्चों की रचनात्मक और विश्लेषणात्मक क्षमता विकसित नहीं हो
पाती। सुबह स्कूल, दोपहर
में ट्यूशन और शाम को होमवर्क के कारण बच्चों पर पढ़ाई का बोझ बढ़ गया है। उन्हें
खेल-कूद,
कला और अन्य गतिविधियों के लिए समय ही नहीं मिल पाता। शिक्षा
अब सेवा कम और व्यापार ज्यादा बन गई है। कई कोचिंग संस्थान केवल अधिक फीस वसूलने
के उद्देश्य से चल रहे हैं।
यदि
हमें बच्चों को ट्यूशन जैसी "बैसाखियों" पर निर्भर होने से बचाना है, तो शिक्षा प्रणाली में कुछ ठोस बदलाव करने होंगे।
विद्यालयों की शिक्षा को अधिक व्यावहारिक, दिलचस्प और बच्चों के अनुकूल बनाना ज़रूरी है ताकि वे
अतिरिक्त सहायता के बिना भी सीखने में सक्षम हों। कक्षा का आकार सीमित हो और
शिक्षण छोटे बैच में हो, जिससे
प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत ध्यान मिल सके। माता-पिता की भूमिका भी अहम है।
उन्हें बच्चों के साथ पढ़ाई में समय बिताना चाहिए, मार्गदर्शन देना चाहिए और पढ़ाई को बोझ नहीं, बल्कि आनंददायक अनुभव बनाना चाहिए। बच्चों की दिनचर्या में
खेल,
रचनात्मक गतिविधियाँ और पर्याप्त आराम का स्थान होना चाहिए
ताकि उनका मानसिक और शारीरिक विकास संतुलित हो सके। यह सच है कि ट्यूशन और कोचिंग
क्लासेज ने कई छात्रों को मार्गदर्शन और सफलता दिलाई है, लेकिन जब ये शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बन जाएँ, तब यह चिंता का विषय बन जाता है। शिक्षा का उद्देश्य केवल
अच्छे अंक लाना नहीं, बल्कि
आत्मविश्वासी, सशक्त और रचनात्मक
नागरिक बनाना होना चाहिए। विद्यालयों में “पियर लर्निंग” और “डाउट क्लीयरिंग
सेशन्स” जैसी पहल छात्रों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में मददगार हो सकती हैं।
बच्चों को ऐसे पंख देने की आवश्यकता है जिससे वे अपने दम पर उड़ सकें, न कि ऐसे सहारे जिन पर वे जीवन भर निर्भर रहें। शिक्षा केवल
सूचना का संग्रह नहीं, बल्कि
जीवन जीने की कला है। इस सोच के साथ विद्यालय, माता-पिता और समाज को मिलकर ऐसा वातावरण बनाना होगा जिसमें
हर बच्चा अपनी पूरी क्षमता के साथ आगे बढ़ सके।
यह
लेखक के व्यक्तिगत विचार है।
लेखक
श्याम कुमार कोलारे
सामजिक कार्यकर्ता, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
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