आलेख : हर साल घट रही सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या, शिक्षा व्यवस्था के लिए एक गंभीर चिंता
शिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ होती है। यह केवल ज्ञान का स्रोत नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, समान अवसर और एक बेहतर भविष्य की आधारशिला है। भारत जैसे विकासशील देश में, जहां सामाजिक और आर्थिक विषमता गहरी जड़ें जमा चुकी है, वहाँ सरकारी स्कूल हमेशा से उन बच्चों की आशा रहे हैं जो निजी शिक्षा का खर्च वहन नहीं कर सकते। लेकिन हाल के वर्षों में सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। विशेष रूप से मध्यप्रदेश जैसे राज्य में यह गिरावट चिंताजनक रूप ले चुकी है। ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में तो कई स्कूलों को बच्चों की कम उपस्थिति के कारण बंद भी कर दिया गया है। यह स्थिति केवल एक शैक्षणिक समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और नीति-निर्माण के स्तर पर गंभीर संकट का संकेत है।
मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों से आए आँकड़े बताते हैं कि सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन की संख्या हर साल घटती जा रही है। खासकर प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के स्कूल इस संकट से सबसे अधिक प्रभावित हैं। कई विद्यालय ऐसे हैं जहां कुल छात्रों की संख्या 10 से भी कम रह गई है। इस कारण से राज्य सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में हजारों स्कूलों को या तो बंद कर दिया है या पास के स्कूलों में मिला दिया है। यह कदम प्रशासनिक दृष्टिकोण से तर्कसंगत प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसका व्यापक सामाजिक और शैक्षणिक प्रभाव अनदेखा नहीं किया जा सकता। स्कूलों का बंद होना केवल एक भवन का बंद होना नहीं है, बल्कि यह उस क्षेत्र के बच्चों की शिक्षा से दूरी की शुरुआत भी है। छोटे नामांकन के कारण मल्टी-ग्रेड कक्षाएं बनती हैं, जहाँ एक शिक्षक कई कक्षाओं को पढ़ाता है। इससे सीखने का स्तर प्रभावित होता है, जैसा एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट 2024 अनुसार मध्यप्रदेश (ग्रामीण) में कक्षा पाँचवीं के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो स्तर का पाठ पढ़ सकने में असक्षम है l जबकि बच्चों को पूरे पांच साल स्कूल में गुजरने के बाद कम से कम उसे अपनी भाषा के पठन का पूरा ज्ञान होना चाहिए था l गणित की स्थिति भी लगभग यही बनी हुई है, रिपोर्ट अनुसार कक्षा 5 के चार में से एक बच्चे ही सामान्य भाग का सवाल कर पाते है, जो कि एक चिंता का विषय है l
सरकारी स्कूलों में बच्चों की घटती संख्या के पीछे कई कारण हैं। सबसे प्रमुख कारण है निजी स्कूलों का बढ़ता वर्चस्व। असर 2024 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 10 वर्षों में मध्यप्रदेश में 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों का प्राइवेट स्कूलों में नामांकन लगातार बढ़ता रहा है, जो 2024 तक 30.5 फीसदी तक पहुंच गया है। कुछ कारणों में ये भी देखा गया कि सरकारी और निजी स्कूलों के तुलनात्मक आंकड़े यह दिखाते हैं कि निजी विद्यालयों में बच्चों का सीखने का स्तर तुलनात्मक रूप से बेहतर है। उदाहरण के लिए, 2024 में सरकारी स्कूलों में 37.5 फीसदी बच्चे कक्षा -2 स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं, जबकि निजी स्कूलों में यह प्रतिशत 58.1 फीसदी है। गणित के क्षेत्र में भी निजी स्कूलों में सुधार अधिक 5.8 फीसदी रहा है, जबकि सरकारी स्कूलों में केवल 1.2 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई। हालांकि, यह सुधार सकारात्मक है, परंतु 2024 में भी पढ़ाई 48.8 फीसदी और गणित 30.7%फीसदी में राज्य का स्तर अखिल भारतीय औसत से कम बना हुआ है। इससे स्पष्ट है कि अभी भी सरकारी स्कूलों में शिक्षण गुणवत्ता और आधारभूत शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
आज गांवों और कस्बों तक में निजी विद्यालय खुल गए हैं जो स्मार्ट क्लास, अंग्रेजी माध्यम और ‘बेहतर अनुशासन’ जैसे आकर्षक वादे करते हैं। अभिभावक, चाहे उनकी आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, अपने बच्चों को बेहतर भविष्य की तलाश में निजी स्कूलों में भेजना चाहते हैं। सरकारी स्कूलों की छवि एक प्रकार से “गरीबों के स्कूल” की बन गई है, जिससे समाज का एक बड़ा वर्ग उनसे दूरी बनाने लगा है। यह छवि बदलाव की माँग करती है, परंतु इसके लिए केवल प्रचार या नारेबाज़ी से काम नहीं चलेगा, बल्कि ज़मीनी स्तर पर सुधार लाना अनिवार्य होगा। शिक्षा की गुणवत्ता भी एक महत्वपूर्ण कारण है जिसकी वजह से सरकारी स्कूलों से मोहभंग होता जा रहा है। शिक्षकों की नियमित अनुपस्थिति, अधूरी भर्ती और प्रयोगात्मक शिक्षण के अभाव ने बच्चों की सीखने की रुचि को प्रभावित किया है। कई स्कूलों में विज्ञान या गणित जैसे विषयों के लिए प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं। ऊपर से भारी प्रशासनिक कार्यों में शिक्षकों की व्यस्तता उन्हें बच्चों की पढ़ाई से दूर कर देती है। जब बच्चों को समय पर पाठ्यक्रम नहीं मिल पाता, शिक्षकों का मार्गदर्शन नहीं होता और कक्षा में नवाचार नहीं होता, तो वे स्कूल आने से कतराने लगते हैं और धीरे-धीरे विद्यालय खाली होने लगते हैं। इन सबके साथ एक सामाजिक पहलू भी जुड़ा है जो कम ध्यान में आता है। ग्रामीण क्षेत्रों में जब कोई सरकारी स्कूल बंद होता है, तो बच्चों को आसपास के अन्य स्कूलों में जाने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। यह दूरी विशेष रूप से छोटी कक्षाओं के बच्चों, बालिकाओं और दिव्यांग छात्रों के लिए चुनौतीपूर्ण बन जाती है। माता-पिता अपनी बेटियों को दूर भेजने से हिचकते हैं, जिसके कारण कई बार उनकी पढ़ाई बीच में ही रुक जाती है। इससे लड़कियों के शिक्षा स्तर पर प्रतिकूल असर पड़ता है और बाल-विवाह जैसी सामाजिक समस्याएं फिर से सिर उठाने लगती हैं।
इसके अलावा, सरकारी स्कूल स्थानीय समुदाय के लिए केवल शिक्षा का केंद्र नहीं होते, बल्कि रोजगार, सामाजिक मेलजोल और सामूहिक विकास का आधार भी होते हैं। जब कोई स्कूल बंद होता है तो वहाँ काम करने वाले शिक्षक, रसोइया, सफाईकर्मी और अन्य सहायक कर्मियों की आजीविका पर भी असर पड़ता है। यह केवल एक संस्थान का नुकसान नहीं होता, बल्कि एक पूरे समुदाय का संकुचन होता है। इस समस्या का समाधान केवल स्कूल बंद करने या उन्हें मर्ज करने में नहीं है, बल्कि इन संस्थानों को पुनर्जीवित करने में है। सबसे पहले शिक्षकों की संख्या और गुणवत्ता सुनिश्चित की जानी चाहिए। उन्हें समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे बदलते समय के साथ नई शिक्षण विधियों को अपना सकें। बाल-केंद्रित और रचनात्मक गतिविधियों के माध्यम से बच्चों की रुचि बनाए रखना ज़रूरी है। स्मार्ट क्लास, विज्ञान प्रयोगशालाएं, पुस्तकालय और खेल के साधन जैसे संसाधनों की उपलब्धता विद्यालयों को बच्चों के लिए आकर्षक बना सकती है। इसके साथ ही, अभिभावकों की भागीदारी बढ़ाना भी आवश्यक है। यदि स्कूल को सामुदायिक केंद्र के रूप में विकसित किया जाए, जहाँ स्थानीय लोग समय-समय पर बच्चों की पढ़ाई, उपस्थिति और प्रगति की समीक्षा कर सकें, तो अभिभावकों का विश्वास बहाल किया जा सकता है। पंचायतों और स्थानीय निकायों को विद्यालय प्रबंधन समिति जैसी संस्थाओं के माध्यम से सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह केवल नामांकन बढ़ाने पर ध्यान न दे, बल्कि यह भी सुनिश्चित करे कि बच्चे स्कूल में ठहरें और सीखें। स्कूलों को नकारात्मक छवि से निकाल कर सकारात्मक पहचान देने की आवश्यकता है। ‘सरकारी स्कूल’ शब्द को ‘जन शिक्षा केंद्र’ जैसे सशक्त नामों से बदलकर एक नई शुरुआत की जा सकती है। जब कोई सरकारी स्कूल नवाचार, सफलता और गुणवत्ता का प्रतीक बनेगा, तब ही समाज का भरोसा लौटेगा। नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे स्कूलों को बंद करने के निर्णय से पहले उसके सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन करें। स्कूलों को क्लस्टर मॉडल में विकसित किया जा सकता है, जिसमें पास-पड़ोस के स्कूल मिलकर संसाधन साझा करें और शिक्षक संयुक्त रूप से कार्य करें। डिजिटल लर्निंग, रेडियो क्लास, मोबाइल लाइब्रेरी जैसी पहलों को भी सरकारी स्कूलों में समाहित किया जा सकता है। अंततः, यह स्वीकार करना होगा कि सरकारी स्कूल केवल शिक्षा का माध्यम नहीं हैं, बल्कि समानता और अवसर के वाहक हैं। यदि यह तंत्र टूटता है, तो समाज के कमजोर वर्गों की उम्मीदें टूटती हैं। हमें यह तय करना होगा कि क्या हम शिक्षा को केवल बाजार की वस्तु बनने देना चाहते हैं, या फिर इसे एक सार्वभौमिक अधिकार के रूप में सुदृढ़ बनाए रखना चाहते हैं। सरकारी स्कूलों को पुनर्जीवित करने की जरूरत अब केवल एक शैक्षणिक आवश्यकता नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी बन गई है। अगर हम चाहते हैं कि हर बच्चा, चाहे वह किसी भी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि से आता हो, एक समान शिक्षा पाए, तो हमें सरकारी स्कूलों को बंद करने के बजाय उनमें जान डालनी होगी। यही रास्ता हमें एक शिक्षित, समावेशी और प्रगतिशील भारत की ओर ले जाएगा।
लेखक
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्र लेखक
छिन्दवाड़ा , मध्यप्रदेश - 9893573770
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