पारंपरिक खेल: शारीरिक, मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास का आधार

पारंपरिक खेल: शारीरिक, मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास का आधार

शीर्षक -  पारंपरिक खेल: शारीरिकमानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास का आधार

मनुष्य के विकास में खेलों की भूमिका सदियों से महत्वपूर्ण रही है। विशेष रूप से पारंपरिक खेल न केवल मनोरंजन का साधन रहे हैंबल्कि वे बच्चों और युवाओं के शारीरिकमानसिकसंज्ञानात्मकसामाजिक और नैतिक विकास में भी अत्यंत सहायक सिद्ध हुए हैं। परंतु वर्तमान समय में आधुनिकीकरणशहरीकरण और मोबाइल क्रांति ने इन खेलों की जगह आधुनिक डिजिटल खेलों को दे दी हैजिससे बच्चों का जीवन-शैली और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। भारत की सांस्कृतिक विरासत में पारंपरिक खेलों का विशेष स्थान रहा है। कबड्डीखो-खोकुश्तीकंचेलंगड़ी टांगपिट्टूगिल्ली-डंडाटायर दौड़लुका-छिपीगदा-पीठीघरगुला आदि खेल गाँवों और शहरों दोनों में लोकप्रिय थे। इन खेलों में केवल मनोरंजन ही नहीं थाबल्कि इनमें जीवन के लिए आवश्यक अनेक गुण भी छिपे होते थे।

पारंपरिक खेलों में दौड़नाकूदनाझुकनापकड़नागिरना और उठना जैसी गतिविधियाँ होती हैंजो बच्चों की मांसपेशियोंहड्डियों और सहनशक्ति को मजबूत बनाती हैं। बच्चे खुले मैदान में खेलने से ताजा हवा और प्राकृतिक धूप का भी लाभ लेते थेजिससे उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती थी। इन खेलों में निर्णय लेनेरणनीति बनानेप्रतिक्रिया देने और समस्याओं का हल निकालने जैसी क्षमताओं का विकास होता था। उदाहरण के लिएकबड्डी और खो-खो जैसे खेलों में तेजी से सोचने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता बढ़ती है। यह बच्चों में स्मरण शक्तिध्यान केंद्रित करने की क्षमता और तार्किक सोच को भी मजबूत बनाता है। ये खेल सामूहिक होते थेजिससे बच्चों में टीमवर्कसहयोगनेतृत्वऔर सहानुभूति जैसे गुण विकसित होते थे। साथ हीजब बच्चे हारते थे तो वे सीखते थे कि हार भी जीवन का हिस्सा है और इससे हतोत्साहित होने की बजाय अगली बार और बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। यही जीवन की असली सीख है। पारंपरिक खेलों के ज़रिए बच्चे ईमानदारीअनुशासनसहिष्णुता और दूसरों के प्रति सम्मान जैसे मूल्यों को अपने जीवन में आत्मसात करते थे। कोई भी खेल बिना नियमों के नहीं चलताऔर इन्हीं नियमों के पालन से नैतिकता की नींव पड़ती है।

वर्ष 2000 के बादजब मोबाइल और कंप्यूटर तकनीक ने दुनिया में क्रांति ला दीतब इसका सीधा असर बच्चों के खेलने के तौर-तरीकों पर पड़ा। स्मार्टफोनवीडियो गेमटैबलेटऔर अन्य इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स ने बच्चों को घर के अंदर कैद कर दिया। अब बच्चे खुले मैदान की जगह छोटे स्क्रीन पर समय बिताने लगे हैं। इस बदलाव से बच्चों का शारीरिक विकास बाधित हो रहा है। दिनभर बैठकर गेम खेलने से मोटापाआंखों की कमजोरीपीठ और गर्दन में दर्दऔर यहां तक कि मानसिक तनाव की समस्या भी बढ़ रही है। से 10 वर्ष की आयु में चश्मा लगना अब आम बात हो गई हैजो पहले बहुत कम होता था। डिजिटल गेम्स जहां बच्चों को कल्पनाओं की दुनिया में ले जाते हैंवहीं उनमें सामाजिक सहभागिता की कमी होती है। बच्चा अपने दोस्तों के साथ मिल-जुलकर खेलने और संवाद करने की बजाय मोबाइल स्क्रीन पर एकाकी समय बिताता है। इससे सामाजिक कौशलआत्मविश्वास और भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास रुक जाता है। इसके विपरीत पारंपरिक खेलों में आपसी बातचीतसहयोग और प्रतिस्पर्धा के साथ संतुलन बना रहता हैजो एक संपूर्ण व्यक्तित्व निर्माण के लिए आवश्यक है। पारंपरिक खेलों का एक और बड़ा लाभ यह था कि वे बच्चों को प्राकृतिक वातावरण के प्रति अनुकूल बनाते थे। बच्चे गर्मीसर्दीऔर बारिश जैसे मौसमों में भी खेलने जाते थेजिससे उनका शरीर मौसम के प्रति सहनशील बनता था। आज के बच्चे मामूली बदलाव में भी बीमार पड़ जाते हैंक्योंकि वे घरों में बंद रहते हैं और प्रकृति से जुड़ाव नहीं रख पाते।

आज समय की आवश्यकता है कि हम पारंपरिक खेलों को पुनर्जीवित करें। इसके लिए सबसे पहले माता-पिता और शिक्षकों को जागरूक होना पड़ेगा। वे बच्चों को इन खेलों से परिचित कराएँउनके साथ समय बिताएँ और उन्हें प्रोत्साहित करें कि वे मोबाइल और टीवी से दूर रहकर खुली हवा में खेलें। विद्यालयों में इन खेलों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। स्पोर्ट्स पीरियड में सिर्फ क्रिकेट या फुटबॉल ही नहींबल्कि पारंपरिक खेलों का भी आयोजन होना चाहिए। स्थानीय स्तर पर खेल मेलेप्रतियोगिताएँ और कार्यशालाएँ आयोजित की जा सकती हैंजिनमें बच्चे भाग लेकर इन खेलों को सीखें और अपनाएँ। इसके अतिरिक्त सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को भी इस दिशा में काम करना चाहिए। पारंपरिक खेलों को बढ़ावा देने के लिए नीति बनाई जानी चाहिएजिसमें इन खेलों के प्रचार-प्रसारखेल के मैदानों के निर्माण और प्रशिक्षकों की नियुक्ति पर विशेष ध्यान दिया जाए।

पारंपरिक खेल केवल मनोरंजन का साधन नहींबल्कि जीवन जीने की कला सिखाने वाले साधन हैं। वे न केवल बच्चों को शारीरिक रूप से मजबूत बनाते हैंबल्कि मानसिक रूप से सजगसामाजिक रूप से जागरूक और भावनात्मक रूप से संतुलित भी बनाते हैं। आज जब आधुनिक तकनीक बच्चों को प्राकृतिक जीवन से दूर कर रही हैतब पारंपरिक खेल ही उन्हें फिर से संतुलित और स्वस्थ जीवन की ओर ले जा सकते हैं। इसलिए यह हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि हम पारंपरिक खेलों को पुनर्जीवित करेंउन्हें अगली पीढ़ी तक पहुँचाएँ और अपने बच्चों को स्वस्थसशक्त और संस्कारित बनाने की दिशा में कदम उठाएँ।

 

लेखक
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्र लेखक/साहित्यकार
छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश
9893573770

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