पारंपरिक खेल: क्यों ज़रूरी हैं आज के बच्चों के लिए?

पारंपरिक खेल: क्यों ज़रूरी हैं आज के बच्चों के लिए?

 


पारंपरिक खेल: क्यों ज़रूरी हैं आज के बच्चों के लिए?

क्या आपको याद है वो दिन जब हम मैदान में धूल-मिट्टी में लथपथ होकर घंटों कबड्डी, खो-खो, पिट्टू या लुका-छिपी खेलते थे? वो वक्त भी क्या वक्त था! खेल में हार-जीत तो होती ही थी, लेकिन असली जीत होती थी दोस्ती की, शरीर की ताकत की और दिमाग की तेज़ी की।

आज जब हम अपने बच्चों को मोबाइल और वीडियो गेम्स में उलझा हुआ देखते हैं, तो कहीं न कहीं हमें अपने बचपन की वो सक्रियता, वो खुशी और वो सीखें याद आती हैं — जो हमें सिर्फ पारंपरिक खेलों से मिली थीं।

बदलते दौर में खेलों का चेहरा

21वीं सदी के साथ आई डिजिटल क्रांति ने बच्चों की खेल संस्कृति को पूरी तरह बदल दिया है। मोबाइल, टैबलेट, वीडियो गेम्स और कंप्यूटर आज बच्चों के नए ‘खिलौने’ बन चुके हैं। लेकिन इस बदलाव की कीमत भी हमें चुकानी पड़ रही है।

बच्चे अब मैदान में दौड़ने की बजाय स्क्रीन पर उंगलियां चला रहे हैं। परिणाम? शारीरिक कमजोरी, आंखों की रोशनी कम होना, मोटापा, और सामाजिक कौशल की कमी

5-10 साल के बच्चों को चश्मा लग जाना, थकान की शिकायत करना और हर समय चिड़चिड़े रहना अब आम बात हो गई है। क्या यही हम अपने बच्चों के लिए चाहते हैं?

पारंपरिक खेलों की अनोखी ताकत

पारंपरिक खेलों में सिर्फ शरीर नहीं, मन, बुद्धि और भावना भी सक्रिय होती है।
चलिये, जानते हैं कि आखिर इन खेलों में ऐसा क्या खास है:

1. शारीरिक ताकत का विकास

कबड्डी, खो-खो, लंगड़ी टांग, कुश्ती — ये सभी खेल शरीर को मजबूत बनाते हैं। बच्चों की हड्डियाँ मजबूत होती हैं, मांसपेशियां सक्रिय रहती हैं और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बेहतर होती है। खुली हवा में खेलने से प्राकृतिक अनुकूलता भी विकसित होती है।

2. मानसिक और संज्ञानात्मक विकास

ये खेल बच्चों को तेजी से सोचना, योजना बनाना और निर्णय लेना सिखाते हैं। उदाहरण के लिए, कबड्डी में कौन कब, कहां हमला करेगा — यह बच्चों को सजग और सतर्क बनाता है। यह खेल उनके ब्रेन पावर को मज़बूत बनाते हैं।

3. सामाजिक और भावनात्मक जुड़ाव

पारंपरिक खेल अकेले नहीं खेले जाते — ये समूह में खेले जाते हैं। इससे बच्चों में टीमवर्क, दोस्ती, नेतृत्व और सहयोग के गुण विकसित होते हैं। हार-जीत के अनुभव उन्हें भावनात्मक रूप से संतुलित बनाते हैं।

4. नैतिकता और जीवन मूल्य

इन खेलों में नियमों का पालन अनिवार्य होता है, जो बच्चों को ईमानदारी, अनुशासन और खेल भावना सिखाते हैं। हार को स्वीकार कर आगे बढ़ने की प्रेरणा इन्हीं खेलों से मिलती है।

आज के बच्चों की सबसे बड़ी कमी — आउटडोर खेल

आज के बच्चे मोबाइल गेम्स में इतने उलझ चुके हैं कि उन्हें न तो धूप में खेलना पसंद है, न ही मिट्टी से दोस्ती। वे घर की चारदीवारी में ही 'गेम ओवर' कर रहे हैं — शरीर का भी और मन का भी।

क्या कर सकते हैं हम?

अब सवाल यह उठता है — क्या हम इस स्थिति को बदल सकते हैं?
बिलकुल! लेकिन शुरुआत हमें खुद करनी होगी।

बच्चों के साथ खुद खेलें

हफ्ते में कुछ समय निकालें और बच्चों के साथ कबड्डी, पिट्टू, लुका-छिपी जैसे खेल खेलें। इससे न केवल बच्चों में रुचि बढ़ेगी, बल्कि आप दोनों के बीच का रिश्ता भी मज़बूत होगा।

स्कूल और समाज में इन खेलों को बढ़ावा दें

स्कूलों में पारंपरिक खेलों की प्रतियोगिताएं हों। पेरेंट्स-टीचर्स मीटिंग में इस पर चर्चा हो। स्थानीय स्तर पर "खेल मेले" या "पारंपरिक खेल दिवस" जैसे आयोजन किए जाएं।

मोबाइल और स्क्रीन टाइम सीमित करें

बच्चों के मोबाइल उपयोग पर समय-सीमा निर्धारित करें और उन्हें विकल्प के तौर पर पारंपरिक खेलों से परिचित कराएं।

खेलों के मैदान बचाएं

शहरों में खेल मैदान तेजी से कम हो रहे हैं। यह समय है जब हमें खुली जगहों को संरक्षित करना होगा, ताकि बच्चों के पास खेलने की जगह हो।

निष्कर्ष: परंपरा को फिर से जीवन में उतारें

पारंपरिक खेल हमारे जीवन की संस्कृति, विरासत और संतुलन का हिस्सा हैं। वे हमें सिर्फ मज़ा नहीं देते, बल्कि जिम्मेदार, स्वस्थ और संवेदनशील नागरिक भी बनाते हैं।

आज जब हम तकनीक की दौड़ में आगे बढ़ रहे हैं, तब ज़रूरत है कि हम अपने बच्चों को थोड़ी मिट्टी, थोड़ी धूप, थोड़ी दौड़ और थोड़ी हार-जीत का भी स्वाद चखाएं।

आइये, एक बार फिर बच्चों को वही बचपन दें — जो हमने जिया था।
जहाँ ‘खेल’ केवल मोबाइल की स्क्रीन नहीं, बल्कि जीवन का सबक होता था।

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