किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति का अनिवार्य अंग है- शिक्षा
शिक्षा किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति का अनिवार्य अंग है। शिक्षा के द्वारा न केवल व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है, वरन् सामाजिक एवं सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण भी यह करती है। नयी पीढ़ी अपनी संस्कृति के प्रति आस्था और निष्ठा उसी शिक्षा के माध्यम में रख सकती है, जिसका आधार उसकी अपनी संस्कृति हो। भारतवर्ष की सनातन सांस्कृतिक परम्परा में शिक्षा स्वयं में बहुअर्थगर्भित शब्द है । यहाँ शिक्षा का अभिप्राय साक्षरता अथवा शैक्षणिक प्रमाणपत्रों की उपलब्धता मात्र नही है। शिक्षा यहाँ मानव-मन को शुभसंस्कारों से सुसज्जित करने का माध्यम है; मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला है; उसमें सामाजिक दायित्वबोध का जागरण है और उदात्त मानव मूल्यों की प्राप्ति का कल्याणकारी संदेश है, जिसमें अक्षरजान, प्रमाण-पत्र आदि औपचारिकताओं का स्थान गौण है और मनुष्य का चारित्रिक उत्थान प्रधान है। व्यापक यूरोपीय प्रभाव के कारण जब से भारतीय समाज ने शिक्षा के उपर्युक्त स्वरूप और उद्देश्य को विस्मृत कर संस्थागत प्रमाणपत्रीय औपचारिक शैक्षणिक स्वरूप को ही शिक्षा के अर्थ में सीमित संकुचित कर दिया है तब से समाज शिक्षा के वास्तविक प्रकाश से वंचित होकर अशिक्षा एवं अज्ञान के घोर अंधकार में भटकता हुआ वैयक्तिक और सामाजिक पतन का शिकार हो रहा है।
भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का ही चमत्कार है कि भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया है। भारतीय अवधारणा में शिक्षा का उद्देश्य मात्र जीविकोपार्जन तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि ज्ञानार्जन द्वारा व्यक्ति को आध्यात्मिकता के दिव्य गुणों से युक्त कर उसे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के पुरुषार्थ चतुष्टय के निष्पादन योग्य बनाना भी रहा है। प्राचीन भारत में शिक्षा मानवीय व्यक्तित्व के उच्चतम विकास के विशिष्ट उद्देश्य से ही संचालित थी। इस उद्देश्य की पूर्ति तभी संभव हो सकती है जब व्यक्ति को शरी बुद्धि और आत्मा के स्तर तक निखारा जा सके। शिक्षा के इसी दूरगामी उद्देश्य को सम्मुख रखते हुए प्राचीन आचार्यों ने अपने छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि - हे सौम्य, तू ज्ञान सम्पन्न हो, शारीरिक रूप से शत्रुओं का मर्दन करने वाला बलशाली हो, स्व में स्थित होकर विवेकशील बन व आत्म ज्योति से परिपूर्ण प्रज्ञावान् बन कर परम कल्याण को प्राप्त करते हुए जीवन में अपने समकक्षों से श्रेष्ठ बन (शुक्रोऽसि, भ्राजोऽसि, स्वरसि, ज्योतिरसि, आप्नुहि श्रेयांसमति संक्राम)। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि इस आह्वान के माध्यम से छात्र के समग्र विकास अर्थात् शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति के लिए सचेष्ट किया गया है। इस प्रकार शिक्षा के दो पक्ष हुए एक लौकिक और दूसरा परलौकिक । यही कारण था कि भारत की प्राचीन शिक्षा ने भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में ऐसे ज्ञान आविष्कृत किए, जिनके ऋणी आज भी विश्व के दार्शनिक व वैज्ञानिक हैं। अपनी इसी विशिष्ट शिक्षा पद्धति के कारण ही भारत ने सहस्त्राब्दियों तक न केवल विश्व का सांस्कृतिक मार्गदर्शन ही किया, अपितु कृषि, उद्योग, कला-कौशल, औषधि-विज्ञान, गणित-नक्षत्र विद्या तथा विज्ञान-तकनीकी के सभी क्षेत्रों में भी अग्रणी रहा।
प्राचीन शिक्षा का उदेश्य मात्र व्यक्तिगत आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति ही नहीं था अपितु इसका लक्ष्य लोक भावना से पूरित राष्ट्र निर्माण व विश्व बंधुत्व से ही अभिप्रेरित रहा। वस्तुत: प्राचीन भारत की सांस्कृतिक व भौतिक समृद्धि का मूल कारण यहाँ के लोक जीवन को समग्र एवं समावेशी भावना ही थी जो कि उस काल की विशिष्ट शिक्षा पद्धति के द्वारा निरन्तर पोषित होती रही।
समग्र विकास का भारतीय प्रतिमान- भारतीय शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास था । व्यक्तित्व के समग्र विकास में बालक के चारित्रिक विकास तथा आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य ही सर्वप्रमुख था । प्राचीन भारतीय शिक्षा ने अपने देश में ही नहीं, समूचे विश्व में ऐसा उच्चकोटि का आदर्श स्थापित किया, जिससे न केवल व्यक्ति का व्यक्तित्व समुन्नत हुआ, अपितु सम्पूर्ण देश और समाज का नाम ऊंचा हुआ । अहं (व्यक्ति) से वयं (कुटुम्ब) और फिर वयं से सर्वं (लोक) को संस्कारित करना ही शिक्षा का अभीष्ट है। इन संस्कारित लोक समूह के परंपरागत स्वभाव से उनकी "संस्कृति" स्वरूप में आती है और फिर क्षेत्र विशेष में विस्तीर्ण इसी संस्कृति के आधार पर "राष्ट्र" का अस्तित्व उभरता है । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति व राष्ट्र का उद्भव शिक्षा के गर्भ से ही होता है। व्यक्ति के विकास का भारतीय प्रतिमान 'समग्र विकास प्रतिमान" है। इसके दो आयाम हैं पंच कोशीय विकास और परमेष्ठीगत विकास। जहां पंच कोशीय विकास व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है, वहीं परमेष्ठीगत विकास उसका समष्टि, सृष्टि व परमेष्ठी के साथ सामंजस्य बैठाने का विकास है।
- श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रता लेखक एवं साहित्यकार
छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश
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