शिक्षा की बदलती तस्वीर, किस पायदान पर है मध्यप्रदेश ASER 2024 ने किया खुलासा

शिक्षा की बदलती तस्वीर, किस पायदान पर है मध्यप्रदेश ASER 2024 ने किया खुलासा

बच्चों की शिक्षा की ओर बढ़ते कदम की ओर मध्यप्रदेश की तस्वीर दिखाती असर 2024 रिपोर्ट

हर बच्चे का नाम स्कूल में, स्कूल में पढ़ने जाते है
खाना खाकर खेल कूदकर घर को चले आते है
बाबा अब तो 5 साल से, स्कूल रोज जाती हूँ
क्यों मुझे न पढ़ना आता, गणित नही कर पाती हूँ।

प्राथमिक शिक्षा ही किसी व्यक्ति के जीवन की वह नींव होती हैजिस पर उसके संपूर्ण जीवन का भविष्य तय होता है। शिक्षा जीवन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा हैक्योंकि यह न केवल ज्ञान और कौशल प्रदान करती हैबल्कि व्यक्ति के मानसिकसामाजिक और नैतिक विकास में भी मदद करती है। शिक्षा से हम अपनी सोच को विस्तृत करते हैंसमस्याओं को हल करने के नए तरीके सीखते हैं और अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए जरूरी संसाधनों और अवसरों को प्राप्त करते हैं। शिक्षा आज की जितनी जरूरत है, वैसी ही यह हमसे काफी दूर का सपना नजर आ रही है। दुःख इस बात का है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009, 1 अप्रैल, 2010 से प्रभावी तौर पर लागू है और इस अधिनियम को लागू हुए एक दशक से ऊपर हो गएलेकिन शिक्षा को लेकर जो हमारा सपना था वो कहीं भी मूर्त रूप लेता नहीं दिख रहा। हम वहीं खड़े हैंजहां से चले थेअगर कुछ बदला है तो वह केवल समय और यही समय आज सवाल पूछ रहा है कि आखिर शिक्षा की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है?

कुछ अपवादों को छोड़ देंतो देश के ज्यादातर प्राथमिक स्कूलों के हाल बहुत अच्छे नहीं हैं। इन स्कूलों की मुख्य समस्या विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक का न होना है। शिक्षकों की तो बात ही छोड़ दीजिएज्यादातर स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं भी सरकारी दावों को मुंह चिढ़ाती नजर आएगी। कहीं स्कूल का भवन नहीं हैभवन है तो अन्य कई बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। ये सब हैंतो शिक्षक नहीं हैं। इससे समझा जा सकता है कि शिक्षा अधिकार अधिनियम को हमारी सरकार ने कितनी गंभीरता से लिया है।

प्राथमिक शिक्षा स्थिति: बच्चों के लिए शिक्षा की स्थिति पर सर्वे करने वाली संस्था असर द्वारा जनवरी में जारी एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट 2024 के अनुसार जो आकडे सामने आये है वह राज्य की शिक्षा व्यवस्था का खुलासा करने के लिए पर्याप्त हैं। असर 2024 के आंकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में कुल 59 फीसदी बच्चे ही नियमित उपस्थित हो पाते है, वही सरकारी माध्यमिक विद्यालयों में कुल 56.6 फीसदी बच्चों की उपस्थिति होती है, 2010 से बाद यह क्रम 60 फीसदी से कम रहा है। जरा सोचकर देखिये यदि बच्चा स्कूल में ही नहीं है तो वह सीखेगा क्या? बच्चा स्कूल में नहीं है तो आखिर वह कहाँ होता है और क्या करता है?

स्कूलों में कम उपस्थिति उनके सीखने के स्तर को प्रभावित करती है, साल 2024 में 60 या उससे कम नामांकन वाले विद्यालयों का प्रतिशत लगातार घटते जा रहा है, सरकारी स्कूलों के लिए एक बहुत बड़ी समस्या और संकट का विषय है, सरकारी स्कूल के प्रति लोगो और अभिभावकों का मोह धीरे-धीरे कम होता जा रहा है l साल 2010 में करीब 18 फीसदी प्राथमिक विद्यालय 60 या उससे कम नामांकन वाले थे जो 2024 में बढ़कर करीब 65 फीसदी हो गए है l कम उपस्थिति का प्रभाव शिक्षक छात्र अनुपात में भी देखने को मिलता है, कम नामांकन वाले अधिकतर विद्यालयों में लगभग 2 शिक्षक पर 5 कक्षाओं का प्रभार होता है, जिसमें उन्हें एक समय में मिश्रित कक्षाओं को पढ़ाना पड़ता है, ऐसे करीब 90 फीसदी विद्यालय है जहां एक शिक्षक 2 या उससे अधिक कक्षा को एक साथ बिठाकर पढ़ते है, एक साथ बैठकर अलग-अलग कक्षाओं का पाठ्यक्रम और उनके कक्षाओं के अनुरूप सीख देना एक बहुत बड़ी चुनौतीपूर्ण कार्य है जो कि मजबूरी में शिक्षक करते है । इस तरह की पढ़ाई का प्रभाव हम उनके सीखने के स्तर का अनुमान लगा सकते है । कक्षा 5 के आधे से अधिक बच्चे अपनी कक्षा से 3 कक्षा पीछे यानि कक्षा 2 के स्तर का पाठ भी अच्छे से नहीं पढ़ पाते है 

असर रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश की करीब 30  प्रतिशत शालाओं में पेयजल की अनुपलब्धता है इसके चलते बच्चों को या तो अपने कंधे पर बॉटल लेकर जाना होता है या फिर प्यासे ही पढ़ना पड़ता है। यह समस्या अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में है जिससे यह भी स्पष्ट है कि इस समस्या से आधिकारिक रूप से गरीब व वंचित वर्ग के बच्चों को ही दो-चार होना पड़ता है। इसी प्रकार प्रदेश की 4.9 प्रतिशत शालाओं में शौचालयों की कोई सुविधा नहीं है और जहाँ उपलब्धता है उनमें से 26.3 प्रतिशत शालाओं में शौचालय प्रयोग करने लायक नहीं है, मात्र 68.8 प्रतिशत शालाओं में उपयोग करने योग्य शौचालय है। 16 प्रतिशत शालाओं में लड़कियों के लिए कोई अलग से शौचालयों की सुविधा नहीं है, और जहाँ यह सुविधा है उनमें से 17 प्रतिशत शालाओं में शौचालय प्रयोग करने योग्य ही नहीं है, करीब 68.8 फीसदी शालाओं में प्रयोग करने लायक शौचालय है। यह समस्या बालिका शिक्षा प्रोत्साहन को लेकर बड़े-बड़े दावे करने वाले इस राज्य में शालाओं में बालिकाओं के लिये पृथक से शौचालय की व्यवस्था को उजाकर करती है। ग्रामीण वातावरण को देखते हुए इस समस्या के कारण अभिभावक लड़कियों को स्कूल जाने से रोक देते हैंजिससे लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही रुक जाती है और वे शिक्षा से वंचित हो जाती हैं।  स्कूल में शौचालय न होना या उपयोग करने लायक न होना लड़कियों की उपस्थिति कम करने का एक महत्वपूर्ण कारण में से एक है। रिपोर्ट के अनुसार आयु वर्ग 15-16 के 12.2 प्रतिशत लड़के और 16.1% लड़कियों स्कूल से बहार है जो शिक्षा से वंचित है  

प्राथमिक शिक्षा बदलती तस्वीर: असर 2024 (एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्टके अनुसार मध्यप्रदेश में निजी स्कूल जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 30.5 फीसदी हो गया है, 2010 में यह दर 21.4 फीसदी थी। पिछले 10 वर्षों से निजी स्कूलों के नामांकन में लगातार बढ़ोतरी होते जा रही, तेजी से निजी स्कूलों की तरफ अभिभावकों का रुझान, सरकारी स्कूलों की पढ़ाई अरुचि की और इशारा करती। रिपोर्ट के अनुसार जहां वर्ष 2016 में कक्षा के सरकारी व् निजी के 14.1 बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ सकते थे वह 2024 में थोड़ा बढकर 18.8% हुआ है, जिसमे सरकारी स्कूलों में 14.8% बच्चे व निजी स्कूलों के 26.7% बच्चे कक्षा 2 स्तर का पाठ पढ़ सकते है। गणित को लेकर भी हालत बहुत संतोष जनक नहीं है, रिपोर्ट के अनुसार 2016 में कक्षा के 33.4बच्चे भाग कर सकते थेदस साल बाद अथक प्रयास के बाद यह स्थिति में 202में थोड़ी बढकर 38 प्रतिशत हो पाई है। यानि 8 साल स्कूल में गुजारने के बाद भी 62% बच्चों को सरल भाग नहीं आता है। कक्षा 8 के सरकारी स्कूल के 13% बच्चे और निजी स्कूलों के 26.5% बच्चे भाग कर सकते है, देखें तो निजी स्कूल सरकारी स्कूलों से दोगुना बेहतर शिक्षा प्रदान कर रहे है। यही कारण है कि सरकारी स्कूलों से लोगों का मोह भंग होता जा रहा है। अब ये बच्चे हाई स्कूल के लिए कैसे तैयार होंगे? यह एक गंभीर प्रश्न है। क्या ये बच्चे अपने आगामी जीवन के गणित को सुलझा पाएंगे? क्या ये बच्चे आगे की कक्षा में अपने आप को साबित कर पाएंगे या पढ़ाई की लाइन से अलग हो जायेंगे ये तो समय ही बताएगा, परन्तु यह एक गंभीर समस्या न बन जाएँ इससे पहले इसका समाधान निकालना जरूरी है।

जिम्मेदार कौन

यह स्थिति तब भी बनी हुई है जबकि आज देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो चुका है और आम जनता में शिक्षा के महत्व को लेकर जागरूकता बढ़ती जा रही है। आज 2024 में शिक्षा की स्थिति को बेहतर करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू हो चुकी है, निपुण भारत मिशन, बुनियादी साक्षरता एवं संख्या ज्ञान की बढ़ोतरी के लिए अनेक प्रयास किया जा रहे है, जिससे देश की शिक्षा में थोड़ा बदलाव तो देखने के लिए मिल रहा है परन्तु यह सकारात्मक बदलाव में निरंतरता बनी रहे इस ओर ध्यान देनी की आवश्यकता है। आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोग अपने बच्चों को ऊंची से ऊंची शिक्षा दिलाने की ख्वाहिश रखने लगे हैं। नए भारत की यह तस्वीर है कि ग्रामीण लड़कियां अब सिर्फ घर के कामों में हाथ नहीं बंटा रहींबल्कि वे साइकिल पर बैठ कर स्कूल की तरफ जा रही हैं। लेकिन हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि हम देश में जैसी शिक्षा दे रहे हैंक्या वह गुणवत्तापूर्ण हैयह प्रश्न शिक्षा व्यवस्था के प्रति प्राप्त उन तमाम नकारात्मक आंकड़ों के आलोक में उठना वांछित है।

प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा की बद से बदतर हालत के लिए कुछ हद तक हमारा समाज भी जिम्मेदार है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि देश के अधिकतर अभिभावक मौजूदा दौर को देखते हुए अपने बच्चों को तो अंग्रेजी माध्यम या फिर मिशनरी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैंक्योंकि अंग्रेजी एवं मिशनरी स्कूल में शिक्षा का जो अत्याधुनिक रूप है उसके सामने गाँवों की प्राथमिक शिक्षा कहीं भी नहीं टिकती।

सरकार ने मध्याह्न भोजन योजना इसलिए चलाई थी कि गरीब बच्चों को पोषक तत्व युक्त भोजन मिलेगाजिससे उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास में वृद्धि होगी। पर हकीकत में इस योजना से नुकसान ज्यादा हो रहा है। असल में सरकार बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए प्राथमिक व उच्च प्राथमिक बच्चे के लिए 100 से 150 ग्राम प्रतिदिन मीनू के अनुसार भोजन की व्यवस्था करती हैलेकिन जब अध्यापकों से इस योजना पर राय जानी तो उन सभी का मानना है कि यह योजना पूरी तरह से दलाली और भ्रष्टाचारियों के चंगुल में फंसी है और इससे बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह बर्बाद हो रही है। बच्चे पढ़ने के लिए कम सिर्फ भोजन के समय खाने में ज्यादा रुचि दिखाते हैं। ज्यादातर विद्यालयों में तैनात एक दो अध्यापक जनगणनाचुनाव जैसे तमाम गैर शैक्षिक कार्यों में लगे रहते हैं और बाकी समय बच्चों के मध्याह्न भोजन में।

कठिन है डगर मंजिल की: आजादी के 77 साल बीत जाने के बाद भी सरकारी नियंत्रण वाले प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में न तो शिक्षा का स्तर सुधर पा रहा है और न ही इनमें विद्यार्थियों को पूरी बुनियादी सुविधाएं मिल पा रही हैं। जाहिर है कि प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा के सुधार के लिए जब तक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जातातब तक हालात नहीं बदलेंगे। निम्न मध्यवर्ग और आर्थिक रूप से सामान्य स्थिति वाले लोगों के बच्चों के लिए सरकारी स्कूल ही बचते हैं। देश की एक बड़ी आबादी सरकारी स्कूलों के ही आसरे है। फिर वे चाहे कैसे हों। इन स्कूलों में न तो योग्य अध्यापक हैं और न ही मूलभूत सुविधाएं। कक्षा चार या पांच के बच्चे अपने से निचली कक्षा की किताबें नहीं पढ़ पाते। सामान्य जोड़-घटाना भी उन्हें नहीं आता। बड़े अफसर और वे सरकारी कर्मचारी जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हैअपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं। अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने की अनिवार्यता न होने से ही सरकारी स्कूलों की दुर्दशा हुई है। जब इन अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़तेतो उनका इन स्कूलों से कोई सीधा लगाव भी नहीं होता। वे इन स्कूलों की तरफ ध्यान नहीं देते।

वास्तव में सरकारी विद्यालयों को केवल धन आवंटन और ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध कराना ही पर्याप्त नहीं होगा। प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए संपूर्ण व्यवस्था की खामियों का पूर्णरूपेण निरीक्षण कर उसमें आमूलचूल सुधार व नियोजन की आवश्यकता है। सरकारी विद्यालयों में भवन व आवश्यक सुविधाएं होनी चाहिए। पर्याप्त संख्या में शिक्षक व अन्य कर्मचारी भी होने चाहिए। स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार सिर्फ सांगठनिक परिवर्तनों से संभव नहीं होगा। भारत में शिक्षा अभियानों से जुड़े बहुत से नीति-निर्माता ये मानते हैं कि प्राथमिक शिक्षा की हालत में सुधार के लिए अभी भारत को आने वाले सालों में कठिन चुनौतियों का सामना करना है। बचपन अमूल्य है और जीवन में कुछ प्रारम्भिक वर्षों के लिए ही प्राप्त होता हैइसलिए बस्ते में अच्छी शिक्षा, जिसमें उनका बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक और व्यवहारिक ज्ञान का पिटारा हो जिससे बच्चों को बचपन का आनंद लेने व सामाजिक विकास करने का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए। सरकारी विद्यालयों में सुधार व प्राथमिक शिक्षा का नियमन शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए दो-आयामी रणनीति होनी चाहिए। समाज या राज्य अपना अधिकतम विकास करने में तभी सक्षम होगाजब समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता में वृद्धि कर पाएगा।

लेखक : श्याम कुमार कोलारे (स्वतंत्र लेखक)भोपाल (मध्य प्रदेश)

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