स्नेह ही तर्पण
जीवन भर संजोयी पूँजी
बाल-बच्चे सब सुखी रहे
खुद की इच्छा से आधी की
सबको अपनी पूरी मिले।
धन-संपदा तो खूब बटोरी
स्नेह नाता की कीमत जोड़ी
सुख-चैन की बलि दिया
मेहनत कर हर ताला खोली।
उम्र गुजर गई मेहनत तप में
पसीना खूब बहाया है
उबाला खून नशों में मैंने
खुद की अपनी पहचान बनाने में।
पड़ा खाट अब दुखन लागे पग
जो नापते थे मिलों का पथ
सूख गया वो ताकत का लौंदा
जिससे जीती दुनियाँ की जद।
बड़ा सा घर का एक कोना में
सिमट गया सारा संसार
बुढ़ापा जीवन की अंत अवस्था
सच्चाई से न करे कोई इनकार।
जीवन का सारा संघर्ष का
एक ही सपना होता है
कुल का दीपक जो जलाया है
क्या वो अंत तक उजाला देता है?
अंत समय का पग बन जाना
बन जाना बूढ़े की लाठी
पितृ-तर्पण भले न कराना
जीवित में हो स्नेह की माटी।
पता नही मारने के बाद
इस जीव का क्या हो जाएगा?
पितृदेव में शामिल होकर
शरीर फिर काग बनकर आएगा?
जीवित में गर तृप्त हुआ तो
भवसागर तर जाऊँगा।
न रहे कोई शिकायत
स्नेह के कौर मैं खाऊंगा।
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रचनाकार
श्याम कुमार कोलारे
चारगांव प्रहलाद, छिन्दवाड़ा
मो. 9893573770
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