एक समय था जो अक्सर, बहुत याद आता है
कल्पनाओं में मेरा मन, अक्सर खो जाता है
शहर की चहल नही, हमे गांव बहुत भाते थे
पढ़े लिखे भले कम थे, संस्कार बहुत आते
पड़ोस का घर भी जैसे, अपना सा लगता था
मदद के लिए सबका हाथ,अनायास बढ़ता था।
जब गांव में खपरैल वाले, घर मे रहा करते थे
उस समय घर कच्चे थे, पर रिश्ते बड़े पक्के थे
मिट्टी के चूल्हे की बनी रोटी के, स्वाद निराले थे
सिल पर पिसी चटनी से, पेट भर खाना खाते थे
जमीन पर धान के प्याले के गद्दे, पर सो जाते थे
नींद बड़ी गहरी आती थी, बाबा डांट कर उठाते थे।
एक तौलिया से पूरा घर, अपना काम चलाते थे
खुरदुरा पत्थर से घिसकर, हम गोरे हो जाते थे
मिलों दूर चलकर, सब स्कूल पढ़ने जाते थे
पास होने खुशी में बाबा, फूलों नही समाते थे
तार की गाड़ी बनाकर, बड़े शान से चलाते थे
पुराना टायर को प्यार से, दिन भर दौड़ाते थे।
जीवन का रस दोस्तों संग था, मस्ती बड़ी निराली थी
सावन के रिमझिम में भीगना, यादें बड़ी सुहानी थी
स्लेट में सीखा लिखना हमने, लिखते और मिटाते थे
पहाड़ा की पुस्तक से पढ़कर, पक्की समझ बनाते थे
श्याम समय वह पहले जैसा, गर फिर से आ जाता है
जीवन के हर सुख फीके, गर बचपन फिर मिल जाता है।
रचनाकार
श्याम कुमार कोलारे
चारगांव प्रहलाद, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
मो. 9893573770
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