बुद्ध द्वारा वर्ण-व्यवस्था का खण्डन Buddha's denial of caste system

बुद्ध द्वारा वर्ण-व्यवस्था का खण्डन Buddha's denial of caste system

अस्सलायन-सुत्त (2.5.6)  मज्झिम निकाय

बुद्ध द्वारा वर्ण-व्यवस्था का खण्डन

मैंने सुना:--एक समय भगवान् सावत्यि (श्रावस्ती में ठहरे  थे।

उस समय नाना देशों के पांच सौ ब्राह्मण किसी काम से श्रावस्ती में ठहरे थे। उन को यह (विचार) हुआ यह श्रमण गौतम चारों वर्णों की शुद्धि का उपदेश करता है। कौन है जो श्रमण गौतम से इस विषय में वाद कर सके उस समय आश्वलायन मुनि केटुम (=कल्प)- अक्षर-प्रभेद (शिक्षा)-सहित तीनों इतिहास में भी पारंग, पदक (कवि), वैयाकरण, लोकायत महापुरुष-लक्षण (शास्त्रों में निपुण, वपित (मुण्डित)-सिर, तरुण माणवक (विद्यार्थी) रहता था। सब उन को यह हुआ-यह सावत्थि में आश्वलायन माणवक रहता है, यह श्रमण गौतम से इस विषय में वाद कर सकता है। तब वह ब्राह्मण जहा आश्वलायन माणवक था, वह गए। जाकर यन माणवक से - आश्वलायन! यह श्रमण गौतम' चातुर्वणी शुद्धि का उपदेश करता है। जाइए आप आलायन श्रमण गौतम से इस विषय में बाद कीजिए। ऐसा कहने पर आश्वलायन माणवक ने उन ब्राह्मणों से कहा-

"श्रवण गोतम धर्मवादी है। धर्मवादी वाद करने में दुष्प्रति-मंत्र्य (=वाद करने में दुष्कर) होते हैं। में श्रमण गौतम के साथ इस विषय में वाद नहीं कर सकता।" * दूसरी बार भी उन ब्राह्मणों ने आश्वलायन माणवक से कहा "।" तीसरी बार भी उन ब्राह्मणों ने आश्वलायन माणवक से कहा- आलायन! यह श्रमण गौतम चातुर्वणी शुद्धि का उपदेश करता है। जाइए आप आंवलायन श्रमण गौतम से इस विषय में वाद कीजिए। आप आश्वलायन युद्ध में बिना पराजित हुए ही मत पराजित हो जाएं।"

ऐसा कहने पर आश्वलायन माणवक ने उन ब्राह्मणों से कहा- *मैं श्रमण गौतम के साथ नहीं (पार) पा सकता। श्रमण गौतम धर्म-वादी है । मैं श्रमण गोतम के साथ इस विषय में वाद नहीं कर सकता। तो भी मैं आप लोगों के कहने से जाऊंगा।" तब आश्वलायन माणवक बड़े भारी ब्राह्मण-गण के साथ जहां भगवान् थे, वहां गया। जाकर भगवान् के साथ संमोदन कर" (कुशल- प्रश्न पूछा) एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हुए आश्वलायन माणवक ने भगवान् से कहा-

“भो गोतम! ब्राह्मण ऐसा कहते हैं-'ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, दूसरे वर्ण छोटे हैं। 

ब्राह्मण ही शुक्ल वर्ण है, दूसरे वर्ण कृष्ण हैं। ब्राह्मण ही शुद्ध होते हैं, अ-ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मण ही ब्रम्हा के औरस पुत्र है, मुख से उत्पन्न ब्रह्म-ज ब्रह्म-निर्मित, ब्रह्मा के दायाद है। इस विषय में आप गोतम क्या कहते हैं।"

"लेकिन आलायन ! ब्राह्मणो की ब्राह्मणियां ऋतुमति, गर्भणी, जनन करती बच्चों की दूध पिलाती देखी जाती हैं। योनि से उत्पन्न होते हुए भी ब्राह्मण ऐसा है ही श्रेष्ठ वर्ण है!" आप गोतम ऐसा कहते हैं, फिर भी ब्राह्मण तो ऐसा ही कहते है!! तो क्या मानते हो आश्वलायन! तुमने सुना है कि' यवन और कम्बोज में और दूसरे सीमान्त देशों में दो ही वर्ण होते हैं-आर्य और दास (गुलाम) आर्य दास हो (क) ता है, दास आर्य हो (सक) ता है?"

“हां, भो! मैंने सुना है कि यवन और कम्बोज में।"

“आश्वलायन! ब्राह्मणों को क्या बल क्या आश्वास है, जो ब्राह्मण ऐसा कहते हैं- ही श्रेष्ठ वर्ण है

“यद्यपि आप गोतम ऐसा कहते हैं, फिर भी ब्राह्मण तो ऐसा ही कहते हैं।" “तो क्या मानते हो आश्वलायन! क्षत्रिय, प्राणि-हिंसक, चोर, दुराचारी, झूठा, बुगुलाखोर, कटुभाषी, बकवादी, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि (-झूठी धारणा वाला) हो; (तो क्या) काया छोड , मरने के बाद अपाय=दुर्गति= विनिपात= नरक में उत्पन्न होगा, या नहीं? ब्राह्मण प्राणि-हिंसक “हो” नरक में उत्पन्न होगा या नहीं? वैश्य ? शूद्र नरक में उत्पन्न होगा या नहीं?

“भो गोतमः क्षत्रिय भी प्राणि-हिंसक हो नरक में उत्पन्न होगा। ब्राह्मण भी भी। शूद्र भी। सभी चारों वर्ण भी गोतम! प्राणि-हिंसक हो नरक में उत्पन्न होंगे। “तो क्या आश्वलायन! ब्राह्मणों को क्या बल= क्या आश्वास (भरोसा) है, जो ब्राह्मण ऐसा कहते हैं।"

फिर भी ब्राह्मण तो ऐसा ही कहते हैं।"

"तो क्या मानते हो, आश्वलायन: क्या ब्राह्मण ही प्राणि-हिंसा से विरत होता है, चोरी में विरत होता है, दुराचार झूठ, चुगली, कटुवचन, बकवाद से विरत होता है, अ-लोभी,

अ-द्वेषी, सम्यक् दृष्टि (=सच्ची दृष्टि वाला) हो, शरीर छोड़ मरने के बाद, सुगति स्वर्गलोक में उत्पन्न होता है; क्षत्रिय नहीं, वैश्य नहीं, शूद्र नहीं?"

"नहीं, भो गोतमः क्षत्रिय भी प्राणि-हिंसा-विरत "सुगति स्वर्ण-लोक में उत्पन्न हो सकता है ।"

ब्राह्मण भी, वैश्य भी शूद्र भी, सभी वर्ण" “आश्वलायन ! ब्राह्मणों को क्या बल ? । "

"तो क्या मानते हो, आश्वलायन! क्या ब्राह्मण ही वैर-रहित, द्वेष-रहित, मैत्रचित्त की भावना कर सकता है, क्षत्रिय नहीं, वैश्य नहीं, शूद्र नहीं ?” “नहीं, भो गोतम! क्षत्रिय भी इस स्थान में, भावना कर सकता है।''। सभी चारों भावना कर सकते हैं

आश्वलायन! ब्राह्मणों को क्या बल ? ।

तो क्या मानते हो, आश्वलायन! क्या ब्राह्मण ही मंगल (=स्वस्ति) स्नान चूर्ण लेकर नदी मैल धो सकता है, क्षत्रिय नहीं!

नही भो गोतम! क्षत्रिय भी मंगल स्नान-चूर्ण ले, नदी जा मेल धो सकता है, सभी चारों वर्ण।" यहाँ आश्वलायन! ब्राह्मणों को क्या बल... तो क्या मानते हो, आश्वलायन! (यदि) यहां मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा, नाना जाति के सौ-पुरुषों को इकट्ठा करे (और उन्हें कहे)--- आयें आप सब, जो कि क्षत्रिय कुल से, ब्राह्मणकुल से और राजन्य सन्तान) कुल से उत्पन्न हैं; और शाल (साखू) की या सरल (वृक्ष) की या चन्दन की या (काष्ठ) की उत्तरारणी लेकर आग बनावें, तेज प्रादुर्भूत करें। (और) आप भी आवें जो कि कुल से, निषादकुल से, बसोर (=वेणु) कुल से, रथकार- कुल से, पुक्कसकुल से उत्पन्न हुए हैं, और कुत्ते के पीने की, सूअर के पीने की कठरी की, धोबी की कटरी की, या रेंड की लकड़ी की जगरणी लेकर, आग बनावें, तेज प्रादुर्भूत करें। तो क्या मानते हो, आश्वलायन क्षत्रिय-ब्राह्मण-वैश्य-शुद्रकुलों उत्पन्नो द्वारा शाल-सरल-चन्दन-पद्म की उत्तरारणी को लेकर, जो आग उत्पन्न की गई है, तेज प्रादुभूत किया गया, क्या वही अर्चिमान् (= लौ वाला), वर्णवान् प्रभास्वर अग्नि होगा? उसी आग से अग्नि का काम लिया जा सकता है? और जो वह चाण्डाल-निषादबसोर-रथकार पुक्कस-कुलोत्पन्नों द्वारा ध्यान-कठरी की शूकर-पान-कठरी की, रेंड-काष्ठ की उत्तरारणी को लेकर उत्पन्न आग है, प्रादुर्भूत तेज है. वह अर्चिमान् वर्णवान् प्रभास्वर न होगा? उस आग से अग्नि का काम नहीं लिया जा सकेगा ? नहीं, भो गोतम! जो वह क्षत्रिय कुलोत्पन्न द्वारा आग बनाई गई है" "वह भी अर्चिमान् आग होगी, उस आग से भी अग्नि का काम लिया जा सकता है; और जो वह चाण्डाल कुलोत्पन्न द्वारा "आग बनाई गई है वह भी अर्चिमान् "आग होगी। सभी आग से अग्नि का काम लिया जा सकता है।"

"यहां आश्वलायन ! ब्राह्मणों का क्या बल ? ।

"तो क्या मानते हो, आश्वलायन ! यदि क्षत्रिय कुमार ब्राह्मण-कन्या के साथ संवास करे। उन के सहवास से पुत्र उत्पन्न हो। जो वह क्षत्रिय कुमार द्वारा ब्राह्मण कन्या में पुत्र उत्पन्न हुआ है, क्या वह माता के समान और पिता के समान, 'क्षत्रिय (है)', 'ब्राह्मण (है)' कहा जाना चाहिए? " “भो गोतम!" कहा जाना चाहिए।"

आश्वलायन! यदि ब्राह्मण कुमार क्षत्रिय-कन्या के साथ संवास करे "ब्राह्मण (है)' कहा जाना चाहिए ?” "ब्राह्मण (है)' कहा जाना चाहिए।

"आश्वलायन! यहां घोड़ी को गदहे से जोड़ा खिलाएं, उन के जोड़ से किशोर (= बछड़ा)उत्पन्न हो । क्या वह माता पिता के समान, 'घोड़ा है' 'गदहा है' कहा जाना चाहिए?" भो गौतम! वह अश्वतर ( खच्चर) होता है। यहां भेद देखता हूं। उन दोनो मे नही देखता हूं।

आश्वलायन! जहां मानवक दो जुड़वे भाई हो। एक अध्ययन करने वाला,उपनीत है। दूसरा अन्- अध्यायक और अन् उपनीत है।श्राद्ध,यज्ञ या पहुनाई मे ब्राह्मण किसको प्रथम भोजन करायेंगे?

भो गौतम! माणवक अध्यायक और उपनीत है, उसी को प्रथम भोजन करायेंगे।अ-अध्यापक अन्-उपनीत को देने से क्या महफल होगा?"

 क्या मानते हो, आश्वलायन! यहां दो माणवक जमुये भाई हो। एक अध्यायक उपनीत, किन्तु शीलवान कल्याण-धर्मा। इनमें किसको ब्राह्मण श्राद्ध, यज्ञ या पाहनाई में प्रथम भोजन करायेगे।

 भो गोतम! जो वह माणवक अन्-अध्याय, अन-उपनीत, (किंतु शीलवान् कल्याण-धर्मा है

उसी को ब्राह्मण प्रथम भोजन कराएंगे। दुखशील-पाप-धर्म को दान देने से क्या महफल होगा।" "आश्वलायन | पहले तू जाति पर पहुंचा, जाति पर जाकर मंत्रों पर पहुंचा, मन्त्रों पर जाकर जब तू चातुर्वणी शुद्धि पर आ गया, जिसका कि मैं उपदेश करता हूँ।" ऐसा कहने पर आश्वलायन माणवक चुप हो गया, मूक हो गया, अधोमुख चिन्तित निष्प्रतिभ हो बैठा। तब भगवान ने आश्वलायन माणवक को चुप मूक निष्प्रतिभ बैठे देख कहा-

"पूर्वकाल में आश्वलायन! जंगल में पर्णकुटियों में वास करते हुए सात ब्राह्मण ऋषियों को इस प्रकार की पाप-दृष्टि (= बुरी धारणा) उत्पन्न हुई- ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है। आश्वलायन तब असित देवल ऋषि ने सुना, सात ब्राह्मण ऋषियों को इस प्रकार की पाप-दृष्टि उत्पन्न हुई है। तब आश्वलायन! असित देवल ऋषि सिर-दाढी मुंडा मंजीठ के रंग का (लाल) घुस्सा पहन, खड़ाऊं पर चढ़, सोने-चांदी का दंड धारणकर, सातों ब्राह्मण ऋषियों को कुटी के आंगन में प्रादुर्भूत हुए। तब आश्वलायन! असित देवल ऋषि सातों ब्राह्मण ऋषियों की कुटी के आंगन में टहलते हुए कहने लगे-"है।आप ब्राह्मण ऋषि कहां चले गए? आप ब्राह्मण-ऋषि कहाँ चले गए?” तब आश्वलायन! उन सातों ब्राह्मण ऋषियों को हुआ- 'कौन है यह गंवार लड़के की तरह सातों ब्राह्मण ऋषियों की कुटी के आंगन में टहलते ऐसे कह रहा है-हैं! आप अच्छा तो इसे शाप देवें।' तब आश्वलायन! सात ब्राह्मण-ऋषियों ने असित देवल ऋषि को शाप दिया-‘शूद्र!' (=वृषल) भस्म हो जा।' जैसे-जैसे आश्वलायन ! सात ब्राह्मण ऋषि असित देवत ऋषि को शाप देते थे, वैसे ही वैसे देवल ऋषि अधिक सुन्दर, अधिक दर्शनीय अधिक प्रासादिक होते जा रहे थे। तब आश्वलायन ! सातों ब्राह्मण ऋषियों को हुआ-हमारा तप व्यर्थ है, वीतकाम (ब्रह्मचर्य) निष्फल है। हम पहले जिसको शाप देते- 'वृषल! भस्स हो जा', भस्म ही होता था। इसको हम जैसे-जैसे शाप देते हैं, वैसे वैसे यह अभिरूप-तर दर्शनीय-तर, प्रासादिक-तर, होता जा रहा है।' (देवल ने कहा)- 'आप लोगों का तप व्यर्थ नहीं, वीतकाम (ब्रह्मचर्य) निष्फल नहीं, आप लोगों का मन जो मेरे प्रति दूषित हो गया है, उसे छोड़ दें।' (उन्होंने कहा) - 'जो मनोपद्वेष (=मानसिक दुर्भाव) है, उसे हम छोड़ते हैं, आप कौन हैं?" 'आप लोगों ने असित देवल ऋषि को सुना है?' 'हां, भो!' 'वही मैं हूं।' “तब आश्वलायन! सातों ब्राह्मण ऋषि, असित देवल ऋषि को अभिवादन करने के लिए पास गए। असित देवल ऋषि ने कहा-'मैंने सुना कि अरण्य के भीतर पर्णकुटियों में वास करते, सात ऋषियों को इस प्रकार की पाप दृष्टि उत्पन्न हुई है-ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है।' 'हां भो! जानते हैं आप, कि जननी माता ब्राह्मण ही के पास गई. अ-ब्राह्मण के पास नहीं?" "नहीं।" "जानते हैं आप, कि जननी माता की सात पीढ़ी तक मातामहयुगल (नानी) ब्राह्मण ही के पास गई।

अब्राह्मण के पास नहीं?' 'नहीं भो!' 'जानते हैं आप कि जनिता-पिता पितामह-युगल सातवीं पीढ़ी तक ब्राह्मणी ही के पास गए, अ-ब्राह्मणी के पास नहीं?' 'नहीं भो जानते हैं आप, गर्भ कैसे ठहरता है?' 'हां जानते हैं भो! जब माता-पिता एकत्र होते हैं, माता ती होती है, और गंधर्व (उत्पन्न होने वाला सत्त्व) उपस्थित होता है; इस प्रकार तीनों के एकत्रित होने से गर्भ ठहरता है।' 'जानते हैं आप, कि यहां गंधर्व क्षत्रिय होता है, ब्राह्मण, या शुद्ध होता है?' 'नहीं भो! हम नहीं जानते, कि वह गंधर्व' 'जब ऐसा (है) तब जानते हो कि तुम कौन हो?' 'भो! हम नहीं जानते हम कौन हैं।'

हे आश्वलायन ! असित देवल ऋषि द्वारा जातिवाद के विषय में पूछे जाने पर, वे सातों ब्राह्मण ऋषि भी (उत्तर) न दे सके; तो फिर आज तुम क्या (उत्तर) दोगे; (जब कि) अपनी सारी पण्डिताई-सहित तुम उनके रसोईदार (= दर्विग्राहक) (के समान) हो।"

● ऐसा कहने पर आश्वलायन माणवक ने भगवान् से कहा- “आश्चर्य! भो गोतम!! आश्चर्य! श्री गोतम!! आज से मुझे अंजलि-बद्ध उपासक धारण करें।"

आश्वलायन ब्राह्मण ने पूर्णरूप से ब्राह्मणो की विषमतावादी वर्ण व्यवस्था को त्याग कर जातिविहीन  मानवतावादी धम्म का उपासक हो गया। अर्हत् फल को प्राप्त हुआ।

उपरोक्त तथ्य से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था के विरूद्ध भगवान गौतम बुद्ध ने ही सर्व प्रथम महाअभिक्रान्ति की थी। सभी नदी रूपी जातियां ,समुद्र रूपी बुद्ध के धम्म मे विलीन हो गई,सिर्फ मानवता समानता प्रेम करूणा दया शेष रही। धम्म ही धम्म रहा।

डॉ पी आर आठनेरे, इंदौर

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