बुद्ध, शिव कैसे बने? How to become Buddha, Shiv,

बुद्ध, शिव कैसे बने? How to become Buddha, Shiv,

बुद्ध, शिव कैसे बने?

(लेखक: डाॅ पी आर आठनेर, इंदौर)

प्राचीन काल मे धम्म विश्वधम्म बन चुका था।विधर्मियो के षडयंत्रकारी प्रभाव से , इस पावन धरती पर कुछ काल तक विलुप्त प्रात रहा। पुनः बोधिसत्व भारतरत्न डॉ. बी. आर. आम्बेडकर के माध्यम से इस धरती पर इस धम्म का आगमन हुआ

मूर्ति चित्रकला, मंदिर आदि का प्रभाव बुद्ध, शिव कैसे बने ?

बुद्ध के धम्म में सभी पंथों संप्रदायों एवं विभिन्न मतमतांतरों और धर्मों को आत्मसात कर लेने की विशिष्ट क्षमता रही है। धम्म शीलसदाचार और ध्यानभावना एवं विपश्यना के अपने मूलस्वरुप को बिना खोये । धम्म जनकल्याण की भावना एवं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय के स्वतंत्र सिद्धांत के साथ किसी भी धर्म को आत्मसात करने की क्षमता रखता है। नामरुपी अस्तित्व के लिये व्यर्थ संघर्ष करने में विश्वास नही रखता है। सहज ही समय के अनुकूल अपना आयाम बदल लेता समन (श्रमण)परंपरा कल्पों कल्प से प्राणियों में सद्भाव एवं शांति के साथ आज भी धम्मचक्कपवत्तन करते हुए गतिमान है।

बुद्ध धम्म पर मूर्तिकला और चित्रकला का प्रभाव पड़ा हैं। बुद्धकाल में ही पहली बार मूर्तिकला निर्माण प्रारंम्भ होता है। बुद्ध ही ध्यानस्थ मुद्रा पर वैदिक ब्राह्मण शैव उपासको की दृष्टि पड़ी। ज्ञानी पंडितों ने शिल्पकारों एवं चित्रकारो की सहायता से शिवजी की मूर्ति का निर्माण किया। बुद्ध की ध्यानस्थ मुद्रा के सिर पर आलौकिकता दर्शाने वाले चिन्हों की खोज की। बुद्ध के 32 लक्षणों में से एक उष्णिशीर्ष को जटा का आकार देकर, उस पर गंगा नदी को बहा दिया गया. जटा के एक किनारे पर अर्धचंद्र का प्रतीक बनाया गया। नीलाकंठ और गले में नाग के चिन्ह की खोज की गयी।

शिव के रूप का विश्लेषण:-

बुद्ध की प्रतिमा हमेशा अलंकार विहीन नैसर्गिक मुद्रा में विश्व के हर कोने में पाई जाती है। किन्तु आर्यों ने जनता को अलंकार के माध्यम से उनकी भावनाओं को दिग्भ्रमित किया। बुद्ध संस्कृति को वैदिक ब्राह्मणो ने आर्य धर्म में परिवर्तित करने के लिये अनेक प्रयास किये। जिसमें के रूप को शिव के औलोकिक रूप में चित्रांकन किया गया। जिसका कोई सहारा नहीं उसके बुद्ध ही सहारा रहे है। बुद्ध धम्म में लिंग भेद नहीं है। बुद्धधम्म मे सभी जाति नस्ल वंश संप्रदाय और धर्मो को आत्मसात करने की क्षमता है। यही इसका विशिष्ट गुण है। वह समय अनुसार अपने अस्तित्व को खोकर भी किसी सत्यपरक विचार धारा में विलीन होने की क्षमता रखता है। जिस प्रकार संसार की सभी नदियां भूभाग पर अपने नामों के साथ बहती है, किन्तु जैसे ही वे समुद्र में मिलती है। वे अपना अस्तित्व खो देती हैं। जैसे पारा और गंधक आपस में मिलकर नये यौगिक में बदल जाता है, अपने अस्तित्व को खोकर नये गुणों को विकसित कर लेता है और प्राणियों के रोग निवारण के लिए उपयोगी हो जाता है। वह कल्याणकारी हो जाता है। वैसे ही धम्म अपना नाम खो कर जन कल्याण में लग जाता है। बुद्ध वहीं शिव हो जाते है। कल्याणकारी (शिव) हो जाते है।

बुद्ध ही शिव स्वरुप में :- वैदिकब्राह्मण धर्म की, बुद्ध धम्म के साथ प्रतिस्पर्धा होते रही है। सत्य धम्म को दबाने की अनेक माध्यम से भरसक कोशिश की जाती रही है। इसी श्रंखला में ब्राह्मण पंडितों ने चित्रकारो एवं शिल्पकारों की सहायता से बुद्ध की मुद्रा में अनेक आलौकिक परिवर्तन किये। बुद्ध धम्म में दुख का कारण तृष्णा कहा गया है। बुद्ध की ध्यान मुद्रा को देखकर चित्रकारो ने बुद्ध के गले में तृष्णा पर विजय पाने का दृश्य स्पष्ट करते हुए उनके गले को नील वर्ण का प्रदर्शित किया। तृष्णा को विष की संज्ञा दी गई है। समस्त तृष्णा रूपी विष के पान करने से बुद्ध का कण्ठ नील वर्ण का हो गया। वे विषरुपी समस्त ऐषणाओं को आकठ पीने वाले (नीलकंठ बुद्ध) हो जाते है। बुद्ध धम्म में बुद्ध को सदियों से नीलकण्ठेश्वर कहने की परंपरा चली आ रही है। वहीं शिव द्वारा भौतिक हलाहल विष पीने के कारण नीलकंठेश्वर कहा जाता था। वैदिको ने बुद्ध के समानार्थी शब्द शिव (कल्याण) गुणबोधक नीलकण्ठेश्वर कहने का प्रचलन चल पड़ा। वे हरहर (अरहत्) महादेव हो जाते है। अकुशल घरमी भूतपिशाचादि गुणों वाले शरणर्थी लोगों को धम्म की दिशा दिखाने वाले सरणंकर (शंकर) बुद्ध कहलाते है। स्वयंदीप बनने वाले (दीपंकर) बुद्ध, दस पारमिताओं को पार करने वाले बोधिसत्व स्वयंश्रम करके बुद्धत्व प्राप्त करने वाले (स्वयंमू) स्वयं प्रकाशित बुद्ध कहलाते है।

बुद्ध का उपशीर्ष (उष्णीशीर्ष) शिव की जटा:

प्राचीन काल मे बुद्ध एवं शिव की मूर्ति की पूजा नहीं होती थी उनके प्रतीक चिन्ह जैसे बुद्ध का प्रतीक चिन्ह हाथी अथवा पाद चिन्ह एवं कमल का फूल माना जाता था।और शिव का प्रतीक चिन्ह हल्का सा स्तूपाकार गोल पाषाण का लिग माना जाता था।(बौद्द भिक्षुओ के निर्वाण के बाद स्मृति शेष हेतु गोल स्तूप बनाने की परंपरा थी। ये ही लिन्गाकार स्तूप को ब्राह्मण धर्म मे शिव लिंग माना और उसे पूजा करना शूरू रखा।) मूर्तिकला के उदय होने पर उनकी मानवाकृतियां बनाकर की प्रथा प्रारंभ हुई। महापुरुषों के 32 लक्षणों में सिर के ऊपर के समान उभार युक्त उपशीर्ष (उष्णीशीर्ष) एक प्रमुख लक्षण मिलता # भगवान बुद्ध के सिर पर भी उपशीर्ष (उष्णीशीर्ष) है। इस उपशीर्ष शीर्ष) को शिव की जटा के रूप में चित्रकार ने प्रदर्शित किया गया । पाली भाषा में जटा = सिर के उलझे हुए बाल, अर्थात् उलझन

  अथवा समस्या कहा जाता है। संसार के लोग दुःख रुपी समस्याओं में उलझे हुए हैं। यह भी माना जाता है। (अन्तः जटा बहिर्जटा जटाए जटितो पजा )। संसार में आन्तरिक और बाहरी समस्या ही समस्या जीवन में पाई जाती है। भगवान बुद्ध ने इन समस्याओ का समाधन खोज निकाला । मन को नियन्त्रित कर इन समस्या उत्पन्न करने वाली उलझनों पर काबू पाने की विधि का आविष्कार किया। 

भगवान ने मन को दुःखीत करने वाली समस्त संसारिक समस्याओं ( जटाओं) पर काबू पाने की विधि का उल्लेख किया या है। यथा-

सीले पतिट्ठाय नरो स पञ्ञो चित्तं पञ्ञञ्च भावयं ।

आतापी निपको भिक्खू सो इमं विजटये जरं । सुतपिटक (संयुक निकाय 1/13 अर्थात् जो मनुष्य शील में प्रतिष्ठित हैं और समाधि एवं विपश्यना के भावना करता है वह तृष्णा रुपी जटा (समस्याओं) समूह का संछेद (समूल नाश) करता है।

प्राणा प्राणमतांयत्रात्रिताः सर्वेन्द्रियानि च।

यदुत्तमाङगङगानां शिरस्तदमिधीयते ।। च.सं.सू. 17/12 अर्थात् शरीर का सबसे उत्तम अंग सिर है। इसमें प्राण सहित सभी इन्द्रियों का निवास स्थान है मन का स्थान भी सिर ही है। मन को प्रभावित एवं संचालित करने वाली मन की अग्नि का समवाय संबन्ध भी सिर से ही है। अतः सिर में वासना रूपी अग्नि को करने शीतलता की जरूरत होती है। शीतलता को प्रदर्शित करने वाली गंगा की धारा को शिल्पकार एवं चित्रकार ने शिव की जटा पर बहा कर  प्रदर्शित किया है। बौद्ध विचारकों का मत है कि समस्त ऐषणा एवं तृष्णा रूपी अग्नि पर बुद्ध ने अपने श्रम एवं तपोबल से विजय पा लिया है। अब उनकी जीती हुई अवस्था को, हार में कोई नहीं बदल सकता है। 

यस्सजीतं नावजीवति जीतमस्स याति कोचि लोके । तंबुद्धअनन्तपदगोचरं अपदेन केन पदेन नेराथ ।

अर्थात् समस्त ऐषणा एवं तृष्णा रुपी अग्नि को गंगा रूपी शीतल जल घार से प्रक्षालित कर दिया था। इसके साथ कामेणा (मार संग्राम) को बुद्ध ने आसानी से जीत लिया था। कामाग्नि को शांत करने के लिए एवं मानसिक विकारों को शनैःशनैः पचाते है, ऐसी अग्नि को शान्त करने के लिए शीतलता के प्रतीक चन्द्रमा को चुना गया है। चित्रकार ने उनके सिर के कोने में अर्धचन्द्र के मृदु शीतल प्रकाश तथा करुणा की मनोहर शीतल किरणों को उनके सिर पर गिराकर समस्त शरीर (क्षेत्र) को शीतल करने की अभिव्यक्ती की है। पण्डितो और चित्रकारों ने इसी परिदृश्य को समझाने के लिए शिव की जटा में गंगा को बहा कर अर्धचन्द्र को स्थापितकर गूढ ज्ञान को स्पष्ट करने का भागीरथ प्रयास किया है। कायानुकाई विपश्यना ध्यान में सिर के सबसे ऊपरी भाग से पैर के तलवे तक जल की धारावत् शारीरिक संवेदना की अनुभूती करने के संबंध में मझिम निकाय के कायगतासति सुत्त 119-3. 2.9 में विस्तृत वर्णन मिलता है। इस गूढ रहस्य की अभिव्यक्ति को शिव के सिर से गंगा की जलधारा को शरीर पर बहाकर व्यक्त किया है।

बुद्ध के सिर के ऊपर का नागफण, उतर कर शिव के गले का हार कैसे बना?:- नागवंशी इस धरती के सबसे प्राचीन सशक्त प्रशासक रहे है। बुद्ध की प्रतिमाओं पर नागों के फण से रक्षित दिखाया गया है। उसी प्रकार शिव के सिर पर गंगा जी को चित्रकार ने बहते हुए प्रदर्शित किया है। चूंकि जटा के ऊपर से गंगा जी निकलकर बह रही है अतः चित्रकार के पास नाग के फन को स्थापित करने का अब कोई अन्य विकल्प नहीं बचा, इसलिए अब उन्हें कहीं जटा में और फिर गले में लिपटा हुआ दर्शाया जाता है।

त्रिशूल:- व्यावहारिक सिद्धांत :- त्रिशूल को लेकर अनेक मान्यताएं और विवेचनाए है। किन्तु वे सभी सत्यता पर सही हो यह कहा नहीं जा सकता। इतिहास कहता है कि प्राचीनकाल से वैदिक ब्राह्मण बाद और समतावादी बौद्धों की लड़ाई चलती रही है। इसी परिपेक्ष में शिवजी के त्रिशूल की खोज हुई है। जब बुद्ध के प्रति उमडता जनशैलाभ उनकी समता वादी नीति, धम्म के स्थूल से सूक्ष्मातिसूक्ष्म दार्शनिक सिद्धांत,संघ का संघठनात्मक स्वरूप एवं के लिये उनका एवं प्रसार से विरोधियों के पैर फूलने लगे। उनके मन और शरीर को बुद्ध ,धम्मऔर संघ-शूल की तरह बिंधने लगे। तब सुख शांति और समृद्धि के प्रतीक समतावादी बौद्ध परंपरा में सुख निवारण हेतु , भैषज्यगुरु पद्मसंभव दुःख दूर करने इस जगत् में आयें। दैहिक दैविक भौतिक ताप अर्थात् दुख को दूर करने वाले बुद्ध, धम्म संघ की रक्षा को अपने हाथों से सम्हाला, शारीरिक ,मानसिक और आगन्तुज रोगों को जन्म देने वाले, काम क्रोध लोभ अंहकार रूपी तृष्णा जनित मद आदि विकारों को नष्ट करने के लिए प्रतीकात्मक त्रिशूल रूपी यंत्र को अपने हाथों में धारण कर प्राणियों की रक्षा की दैहिक दैविक भौतिक ताप की चिकित्सा करने वाले बोधिसत्व भैषज्यगुरु कहलाये। आगे चलकर बोधिसत्व भैषज्यगुरु पद्मसंभव ही शिव के रूप में पूजे जाने लगे। बोधिसत्व मैषज्यगुरु पद्मसंभव के कारण शारीरिक और मानसिक आगंतु दुख को उत्पन्न करने वाले विषमतामूलक पुरोहितवाद पर घोर संकट आ गया। इसलिए वैदिको ने बुद्ध जैसे आकार वाले शिव का आविष्कार करके उनके हाथों में (उनके सदृश्य) त्रिशूल को थमा दिया गया। विरोधियों ने चित्रकारों के माध्यम से बुद्ध, धम्म,संघ रूपी दुख देने वाले तीनों शूलो को, त्रिशूल के रूप प्रदर्शित किया, और दासों एवं नाग के वैदिक देवता शिव के हाथों में पकड़ाकर प्रदर्शित किया), इसका अर्थ ये लगाया जाता है कि बौद्ध धम्म के घोर विरोधि पुरोहितों ने नागों के पूज्य शिव के हाथों से ही बौद्ध धम्म के उन्मूलन का दाईत्व सौंप दिया। इस तरह बौद्ध धम्म के विरुद्ध पर्वो / उत्सवों को मान्यता दी। बलि,धार्मिक हिंसा (अष्टमी), दिवाली (जुआ आदि खेल) होली (भांग चरस मद्यपान) आदि हरेक आनंद एवं मनोरंजन प्रदान करने वाले कार्य जो सनातनी ब्राह्मण हिन्दू धर्म में वेदोचित माने गये है। संगीत नाच गायन आदि मन को रंजित या क्षणिक आनन्द देने वाले उपक्रमो को पवित्र माना,उन्हें धार्मिक कार्य में सम्मिलित किया गया। बौद्ध धम्म की परंपरा मे आज भी तृष्णा जनितभव विकारो को नष्ट करने वाले परम् कल्याणकारी (शिव) बोधिसत्व भैषज्य गुरू पद्मसंभव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।

 ।।सबके कल्याण के लिये सुविचार ।।

 डाॅ पी.आर.आठनेरे

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