कविता- आशियाना
ये कैसा आशियाना है,
जहाँ छाँव को तरसते लोग मिले
पानी से तो झील भारी
फिर भी सूखे कण्ठ मिले।
पेट की छुब्धा मिटती नही है
जहाँ अन्न भंडार से गोदाम भरे
दिन भर भटकता बाबा है
बस मुट्ठी भर आनाज मिले ।
ये कैसा आशियाना है,
विद्या के दर-दर ठाव मिले
वर्षो घिसकर विद्यादर में
विद्या का न उपहार मिले
दर-दर ठोकर खाकर भी न
मेहनत का पूरा मोल मिले
दिनभर कमाया मेहनत कर
इससे न पूरा उदर भरे।
ये कैसा आशियाना है
जो मिलता था आठआना में
आज वो पूरा एक हुआ
दाल में पानी ज्यादा हो गया
दाल में दाल अब काम मिले।
घर सब मकान हुए रिश्ते हुए फीके
बेटा विमुख होता माँ से
क्या संस्कार हो गए सीटे।
ऐसा आशियाना बन जाये हमारा
जहाँ अमन के फूल खिले
भवरे की गुंजन से बगिया
तितलियों की मुस्कान मिले
मिट्टी के घरोंदे में भी
ठंडक हो भरपूर
आसमान की छत में
सुकून के हो नूर।
माँ की ममता जैसे दुलार हो
पिता का समर्पण हो सबदूर
सब को जीवन उमदा मिले
कोई न हो मजबूर
जिस दिशा हवा बहे
अमन सुगंध की हो सर्दी
ठंडक नही है दूर किसी के
मन की मिट जाए सब गर्दी।
लेखक
श्याम कुमार कोलारे
छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश
मोबाइल 9883573770
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