अंकों के चक्रव्यूह में उलझा अभिभावक
स्कूल ने बच्चों के परीक्षा परिणाम दिखाने एवं बच्चों की प्रोग्रेस पर चर्चा करने के लिए अभिभावकों की मीटिंग बुलाया था। मीटिंग में एक माँ अपने बच्चा के सामने ही रो पड़ी। कारण ! बच्चा अच्छा परीक्षा परिणाम नहीं ला पा रहा था। चालीस से पचास विद्यार्थियों के साथ लगभग तीस अभिभावक बैठे हुए थे। विषयवार शिक्षक के अलावा प्राचार्य भी मीटिंग में बैठी थीं। देखते ही देखते वह बच्चा भी रो पड़ा। विषयशिक्षक को उठकर माँ के पास जाना पड़ा। शिक्षक को बच्चे की माँ को दिलासा देना पड़ा कि सारे दिन एक समान नहीं होते।
पढ़ाई में आगे बढ़ना और पीछे
रहना बच्चों की एक सामान्य प्रक्रिया है। यह घटना शायद एक आम घटना की तरह समझ में आ रही होगी लेकिन मैं इसे दूसरी नजर से देखता हूँ। हर बच्चे के लिए उसकी
माँ दूसरे बच्चों की माँ से अद्वितीय होती है, हर बच्चा यह मानता है । यदि बच्चे
की मानसिकता को ध्यान में रखते हुए सोचे तो यह सही भी है। क्या वह बच्चा माँ के
ऐसे व्यवहार से आहत न हुआ होगा? क्या बच्चा और उसकी माँ के लिए यह एक अवसर मात्र
था? क्या
यह घटना दोनों के लिए कभी न भूलने वाली घटना नहीं है?
वही स्कूल ने एक विद्यार्थी के पिता को बुलाया और बच्चा का रिपोर्ट कार्ड दिखाते हुए प्रिंसिपल ने कहा कि आपका बच्चा यूनिट टेस्ट को हल्के में लेता है। यहाँ तक कि परीक्षाओं में भी गंभीरता नहीं दिखता है, वह इन परीक्षाओं को भी वह मजाक जैसा महसूस करता है, वह बड़ी लापरवाही में रहता है। परीक्षा में कम अंक आने पर भी इसके चेहरे में किसी तरह की चिन्ता और भाव नहीं दिखाई देते। ऐसा लगता है कि वह अपने इस प्रकार के प्रदर्शन को लेकर सजग नहीं है। प्राचार्य की बात ध्यान से सुन रहे पिता ने बड़ी गंभीरता एवं संजीता से जवाब दिया,‘‘मैं भी अपने बच्चे के अंकों और उसकी पोजिशन को लेकर चिंता नहीं करता। मैं बस आपसे यह चाहता हूँ कि उसे सीखने के भरपूर अवसर मिलें। वह जो जानना चाहता है उसे उसमें मदद की जाए। प्राचार्य ने आश्चर्य भरी विस्मित आँखों से देखते हुए कहाँ; यदि वह फेल हो गया तो? तब पिता ने जवाब दिया,‘‘आप उसके लिखे हुए पर ही अंक देंगे न? हम संतुष्ट रहेंगे।’’
इस पिता के जबाब का मतलब
जैसा मैं समझता हूँ ऐसा साहस
हर पिता (और माँ) को करना चाहिए। बच्चों का भविष्य एवं उसकी सीख उनके नंबर से नहीं
चलती वल्कि यह सीख क्या रहा है उस पर चलता है । हम सभी जानते है कि स्कूल का बहुत
से सबक हमरे व्यक्तिगत जीवन में बहुत बार उपयोग में नहीं आते है परन्तु इस सबक से
जीवन कौशल से सम्बन्धी सबालों को सुलझाने एवं समझ के लिए उपयोगी होते है । जरुरी
नहीं कि स्कूल के सभी सबक को नंबरों में आकाँ जाए। कुछ बच्चे अंकों के चक्रव्यूह
में उलझ जाते है परन्तु वास्तविक जीवन में उनकी समझ बहुत अच्छी है । वह जीवन में
अपने कार्यों में अपने आप को बेहतर साबित करते है । यह बातों को शिक्षक एवं
अभिभावक दोनों को समझने की आवश्यकता है ।
एक बच्चे की डायरी में स्कूल ने लिखा, ‘ये बहुत बोलती है। सवाल पर सवाल करती है। शान्त रहना इसे नहीं आता। अपनी मर्जी से सवालों के जवाब लिखती है।’ बच्ची की माँ ने स्कूल से बात की और अपना पक्ष रखा कि, ‘हम चाहते हैं हमारी बच्ची सवाल का एक ही जवाब न माने। वह अपने अनुभवों से चीजों के प्रति अपना नजरिया बनाए। शान्त रहना हमने सिखाया नहीं। हम चाहते हैं कि वह सपने देखते समय भी बोले। हमें पता तो चले कि हमारी बच्ची सपनों में क्या-क्या देखती है।’ इस बच्ची के बारे मुझे भी यह लगता है कि स्कूल बच्चे को विस्तार देने के लिए है कि संकुचित करने के लिए है?
ऐसा
क्यों है कि अधिकतर स्कूल बच्चे को एक ही दायरा में बने रहने देना चाहते हैं।
बच्चा तभी बोले जब उसे बोलने को कहा जाए। भले ही स्कूल में बोलने के अवसर देने
वाला कोई पीरियड ही नहीं होता। होमवर्क करके न लाने पर एक अभिभावक ने साफ कह दिया
कि हमारे बच्चों को गृहकार्य न दिया जाए। वह स्कूल में जितना पढ़ता है, लिखता है, वही बहुत
है। हम हमारे बच्चों को घर में घर का काम जानने में मदद करते हैं। हम नहीं चाहते
कि हमारे बच्चे स्कूल बैग के साथ पूरा स्कूल घर लेकर आएँ। इसका मतलब है यह
प्रगतिशील और बच्चे की नैसर्गिक परवरिश करने वाला परिवार है। अभिभावक बच्चों को
स्कूल के पढ़ाए जाने बाली शिक्षा के आलावा भी अन्य कार्य एवं समझ पर कार्य करने कप
सोचते है । स्कूल एक ऐसा स्थान होता है जहाँ बच्चा पुस्तक के एवं शिक्षक से जीवन
कौशल सीखता है, परन्तु परिवार उनको सजीव क्रियाकल्पों के माध्यम से जीवन कौशल
सीखता है जो आमतौर पत बच्चों को उनके जीवन पर्यंत काम आते है । जरुरी नहीं कि वही
बच्चा स्कूल में बेहतर सीखेगा जो अपने स्कूल के काम को घर में लेकर आयें और उसे घर
पर भी करे । स्कूल यदि चाहे तो स्कूल का काम स्कूल में ही पूरा कराये उनको घर में
अपने घर की सीख सीखने दीजिये । आम परिवार ऐसा कब सोचेगा?
परीक्षा नजदीक थी, अगले ही महीने परीक्षा
शुरू होने वाली थी। एक स्कूल के कई विषयों के शिक्षक बोर्ड की परीक्षा में अपना
भाविष्य देख रहे थे। एक शिक्षक ने कहा,
‘इस बार मेरा रिजल्ट पचास फीसद ही रहने वाला
है।’ दूसरे शिक्षक ने कहा, ‘ये तो बहुत कम हो रहा है। मुझे लगता है कि साठ तक
रहेगा।’ तीसरे शिक्षक ने कहा,‘नहीं, अस्सी तो रहना ही चाहिए’, चौथे ने कहा,‘अस्सी
परसेंट वाले तो दो ही बच्चे हैं।’ पाँचवे ने कहा,‘दस बच्चे तो निश्चित फेल हैं। कहे देता
हूँ।’ परीक्षा उपरांत परीक्षा परिणाम आया। एक भी बच्चा फेल न था। पचास फीसद की
घोषणा करने वाले शिक्षक के विषय का परिणाम अस्सी फीसद रहा था। जिसने अस्सी परसेंट
की घोषणा की थी उसके विषय में तीस फीसद बच्चे ही पास हुए थे। वहीं अस्सी परसेंट
अंक लाने वाले बच्चे बीस से अधिक थे। इसका मतलब है, क्या
शिक्षक साल भर की पढ़ाई कराते-कराते विद्यार्थियों को पूरा समझ पाते हैं? क्या पहले
से ही परिणाम पर बात करना समझदारी है? क्या शिक्षक हर बार अपने बच्चों का सटीक नहीं तो औसत
मूल्यांकन कर लेते हैं?
ऐसे कई उदाहरण हैं जो रोजमर्रा के जीवन में हमारे आसपास मिल जायंगे। वैसे मैं आज तलक नहीं समझ पाया हूँ कि इम्तिहान, एग्जाम, परीक्षा, पोजिशन, रैंक, परसन्टेज, ग्रेड आदि का असल जिन्दगी से जुड़ाव है भी या नहीं। यदि ‘कुछ तो प्रगति के आँकने और जांचने का तरीका हो’ के मसले को एक तरफ रख दें तो मुझे लगता है कि ये भारी-भरकम शब्द खुशी से अधिक गम देते हैं, बेचैनी पैदा करते हैं। घबराहट का ग्राफ बड़ाते हैं। निराशा के घाव देते हैं। कुण्ठा का घेरा डालते हैं। मनोबल को गिराते हैं। खुद को कायर मान लेने वालों की तादाद बढ़ाते हैं। इससे आगे देखें तो यह अवसाद से आगे जाकर घर छोड़ने से लेकर जीवनलीला तक समाप्त करा देते हैं। हर साल खासकर बोर्ड परीक्षा के परिणाम आने के एक दिन बाद टीवी चैनल रोते-बिलखते परिजनों को दिखाते हैं, जिनके बच्चे फेल होने के चलते अपनी अनमोल जिन्दगी को अलविदा कह देते हैं। तमाम अखवार और न्यूज़ चैनल चीख-चीखकर परिणामो का उतार-चड़ाव के बारे में प्रदर्शन करते नजर आयेंगे ।
बच्चों को परीक्षा परिणामों के आधार पर परखा जाने लग जाता है, बच्चे के परीक्षा के अंकों के आधार पर अभिभावकों को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ा जाने लग जाता है । अखबारों के मुखपृष्ठों पर ऐसी कई खबरें पढ़ने को मिलती हैं जिसमें परीक्षा के परिणामों से खिन्न विद्यार्थी आत्महत्या कर लेते हैं। समाज की संवेदनाएं बस अफसोस जताने से आगे नहीं बढ़ पातीं। परीक्षा के परिणामों के आते ही अंकों की अन्तहीन दौड़ में शामिल विद्यार्थी क्या, अभिभावक क्या शिक्षक भी सीना फुलाते नजर आते हैं।
मैं
सबसे पहले इस व्यवस्था को बदस्तूर जारी रखने वाले नीति-नियंताओं से, इस
कुव्यवस्था में बच्चों के साथ खुद को झोंकने वाले अभिभावकों से और इस बेशरम पौधे
की तरह बढ़ने वाली कुपरिपाटी को खाद-पानी देने वाले शिक्षकों से कुछ पूछना चाहता
हूँ। वे अभिभावक जिनकी चिन्ता पूरे साल भर अपने बच्चों को अंकों की दौड़ में सबसे
आगे दौड़ाने की रहती है। जो एक ऐसी चिन्ता में घुले रहते हैं, जिसका कोई
अंत नहीं। जो अपने बच्चों को हर रोज यह सबक घुट्टी की तरह पिलाते रहते हैं, जिन्हें
अपनी हिदायतें एक टॉनिक या एक जरूरी कड़वी दवा की तरह लगती हैं। जिन्हें लगता है
कि अक्सर सख्ती से पेश आने का उनका नजरिया चाहे उसमें चेतावनी-धमकी भी शामिल हो, बच्चे के
विकास के लिए जरूरी है। जो ए ग्रेड से नीचे समझौता नहीं करना चाहते। क्या वह कभी
इस ओर भी ध्यान देते होंगे कि उनके अपने रिपोर्ट कार्ड जीवन के थपेड़ों से सामना
करने के लिए कितना उपयोगी रहे हैं?
क्या अध्यापक बता
सकेंगे कि जब पूरे साल भर एक ही किताब से पढ़ाया। पूरे साल भर एक ही कक्षा के
विद्यार्थियों ने आपको एक जैसा सुना। परीक्षा में प्रश्न-पत्र भी एक ही था, फिर अंकों
में इतनी विविधता क्यों आ सकी? क्या आपको नहीं लगता कि आखिरकार परीक्षा तो विद्यार्थी
देता है आप नहीं? फिर सफलता का सौ फीसद आपकी झोली में क्यों? यदि ऐसा
है तो जिन्हें यह व्यवस्था असफल करार देती है उनकी असफलता के लिए आप कितने
शर्मिन्दा है? कितनी
बार शर्मिन्दा हुए हैं?
शिक्षाविद् तो यहाँ तक कहते हैं कि कोई भी शिक्षक किसी भी विद्यार्थी को पढ़ा नहीं सकता। विद्यार्थी स्वयं सीखते हैं। स्वयं समझते हैं। अपनी समझ से वह आगे बढ़ रहे होते हैं। यदि शिक्षक ही कक्षा-कक्ष में चालीस बच्चों को पढ़ाते हैं तो वे चालीस के चालीस बच्चे हल भी एक समान करते। विषयवार विसंगतियों पर कुतर्क से बचते हुए यह भी कहा जा सकता है कि गणित में जब नियम-सूत्र लगाना समझा दिया गया तो कैसे कोई विद्यार्थी हल आधा-अधूरा-गलत छोड़ सकता है? यह विद्यार्थी की असफलता है या शिक्षक की? अभिभावकों को यह सोचना चाहिए कि साल-दर-साल अव्वल आता हुआ बच्चा कॅरियर में भी अव्वल आएगा? क्या वह अव्वल पुत्र या पुत्री रहेगा? क्या वह अव्वल पति या पत्नी साबित होगा या अव्वल माँ या पिता? हर जगह अव्वल रहने का भाव सम्भव नहीं। सब दौड़ेंगे तो सब अव्वल नहीं हो सकते। लेकिन अव्वल रहने वाला भी तभी अव्वल रहा जब दौड़ने वालों में विविधता थी। सभी सौ की गति से दौड़ेंगे तो क्या आंकलन हो सकेगा?
सम्भव है यहाँ तक पढ़ने
की यात्रा में असहमतियों के बिन्दु ज्यादा होंगे। मैं तो उस दिन की प्रतीक्षा कर
रहा हूँ जब यह परीक्षा का नजरिया में बदलाव आयें । इम्तहान केवल अंक का खेल न होकर
बच्चों में किस दिशा में और मदद करने की आवश्यकता है पर फोकस किया जाएँ । परीक्षा को
बच्चों की मदद करने का टूल के रूप में इस्तेमाल किया जाये न कि उनकी अंकों के आधार
पर कम या अधिक आँकना । युवावस्था तक दो बोर्ड झेलते हुए अब तक के इतिहास में न
जाने कितने प्रतिभाशाली उम्मीदों वाले बच्चे इस खतरा परीक्षाओं के आतंक से ग्रसित
होकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुके हैं। इस ओर कोई ठोस आँकड़ा मेरे पास नहीं है।
यदि दो के साथ और तीन-तीन बोर्ड की वकालत हो रही है तो इसके परिणाम भयावह ही होंगे
।
लेखक
सामाजिक
कार्यकर्त्ता, स्वतंत्र लेखक/साहित्यकार
छिन्दवाड़ा
मध्यप्रदेश
मो. 9893573770
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