कविता - गुमनाम बचपन
सडको पर गुजरते दिन, किसी कोने में गुजरती रात
ये खुदा! क्या कुसूर है मेरा, क्यों नहीं है तू मेरे साथ
बचपन में सहलाने वाला, हाथ नहीं है कोई मेरे सर
बचपन से मजबूत नहीं, कमजोर रह गए मेरे पर l
बचपन जीने का मुझे, क्या कोई अधिकार नहीं
क्यों भटका मेरा जीवन, मैं ईश्वर की संतान नहीं
मुझे भी गुड्डा-गुडिया का खेल, मन में बहुत भाता है
खेलते देख हमउम्र को, खेलने का मन चाहता है l
माँ-पिता का प्यार का, मै भी तो अधिकारी हूँ
प्यार दुलार पुचकार का, मैं भी तो साथी हूँ
मुझे चाहिए थोड़ी शिक्षा, मैं भी काबिल हो जाऊँगा
खड़ा होऊँगा पैरो पर, सुन्दर सा संसार बसाऊंगा l
मैं भी हूँ एक पुजारी, मुझे पाठशाला का दर्शन दो
मैं भी हूँ वो भीड़ हजारी, मुझे थोड़ा तो अवसर दो
मैं भी सबके साथ एक, पहचान बनाना चाहता हूँ
देश की गुमनाम गली से, बाहर आना चाहता हूँ l
मुझे अवसर दो पढ़ने का, मैं काबिल बन जाऊँगा
शिक्षक,डॉक्टर,अधिकारी बन, मैं देश को बढ़ाऊँगाl
आस भरी निगाहें ताकें, गर हाथ मेरे सिर फेराओं
मुझे उठाओं इन गलियों से, मुझे तो कोई अपनाओं
लेखक
श्याम कुमार कोलारे
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