कविता: ऐसा मेरा गाँव

कविता: ऐसा मेरा गाँव



गाँव मेरा एक छोटा सा जीवन उसमे रमता है
राम-राम के मीठे धुन से नित्य सवेरा होता है।
भोर हुआ जब आवे भानु काज शुरू हो जाता है
मंदिर की घंटी धुन से सुहाना पहर हो जाता है।

पनघट पर जब मैया काकी पानी भरने जाती है
सबकी बाते सबजन जाने सब खबर आ जाती है।
गाँव की चौपालें लगती, दाऊ की खूब चलती है
बात उनकी सब माने है आदर से इन्हें सब जाने है।

बच्चों की निर्मल ठिठोली यहाँ आंनद ला जाती है
प्यारी अरना की मीठी बोली मन तृप्त हो जाता है।
गाँव का पानी ऐसा मीठा मधुर मिश्री घुल जाती है
सम्मान जब माइक संग ने मन तृप्त हो जाता है ।

गोधूलि की बेला देंखे आसमान जमी छू जाता है
सुनहरा उलझा चमक प्रकाश जमी पर आता है।
सादा जीवन कम में गुजारा संतृप्त जीवन होता है
रोटी दलिया खाकर उम्मु रात नींद भर सोता है।

हर त्यौहार में चमके आँगन रंगीन दीवारे होती है
छोटे-छोटे तीज पर्व में खूब ख़ुशियाँ होती है। 
खुशियाँ को बहाना चाहिए हर दिन होली होती है
ढ़ोलक मजीरे गाजे-बाजे साज सजनई होती है।

नाचे खुद भी सबको नचाये ऐसे मानुष होते है
प्रेम भावना मान प्रतिष्ठा अमृत झरना बहते है।
चार गांव की बात निराली शांति यहाँ रहती है 
सेवन्ती आजी की सबमें बात निराली होती है।

ओम ध्वनि से गूँजें टोला शाम सुहानी होती है
मढ़िया की देवी शारदा सब संकट हर लेती है।
गांव के बड़े बुज़ुर्ग अनमोल सीख की भीति है
जीवन पथ पर चलने की ये हमे शिक्षा देती है।

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श्याम कुमार कोलारे


 


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