बचपन में हम खेला करते, कितने खेल निराले थे ,
खेलना आये या न आये, वो भी खेल हमारे थे,
घर बनाते रेत के, शान महल की होती थी,
हम होते थे उसके मुखिया, हुकुम सब पर चलाते
वो बचपन के खेल बहुत याद आते l
लुका-छिपी के उस्ताज,रेत की शीप से धनवान
खेल कोई हो, जीत हरदम अपने नाम,
नियम हमारे तगड़े-तगड़े , रोज बनाते रोज मिटाते
रोज झगड़ते कट्टी होते, तुरंत ही फिर मिठ्ठी होते l
वो बचपन के खेल बहुत याद आते l
खेल हमारे अश्ते-चंगे, इमली बीज घिस पांसा
खेलते जैसे जीवन जंग हो, रोनी नहीं कोई झांसा,
गिल्ली-डंडा दिन भर खेलें, लंगड़ी दाम भी भाता,
डंडी गिन-गिन गिनती सीखे, कंचे हिसाब सिखाते ,
वो बचपन के खेल बहुत याद आते l
बचपन के वो घर- घरगुले, रिश्ते नाते सब सिखलाते
मस्ती टोली दिन भर होली, घर आकर डांट भी खाते
सच्ची सीख दादी से मिलती, चौपाल पर दादा पाठ पढ़ाते
गाँव मेरा, स्वच्छ और सुन्दर, जीने की राह बताते l
वो बचपन के खेल बहुत याद आते l
श्याम कोलारे “असर”
समाजिक कार्यकर्त्ता,
संपर्क : 9893573770
Email : shyamkolare@gmail.com
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