कविता - गुमनाम उजाला

कविता - गुमनाम उजाला

 कविता - गुमनाम उजाला

उस दहसत भरी रातो में, 

अंधेरा चुभता है आंखों में

कमजोर होता दिल मेरा, 

जान नही अब साँसों में

डरता हूँ अपनी ही परिछाई से,

मैं अक्सर अंधेरो में

घूमता हूँ तलास करने अपने को, 

गुमनाम उजालों में।

आह! जिन्दगी कैसा-कैसा 

रूप दिखाया आज तुमने

घोर अंधेरा में भी 

उजाला का पाठ पढ़ाया तुमने।

कई बार करवटे बदलकर सोया है 

हमने नरम गद्दों में

पता नही चैन कहाँ खो गया, 

कही सुकून नही मन में ।

सारी जिन्दगी भागता रहा, 

कागज के चंद टुकड़ो के पीछे

साँसे खूब मिली थी मुझे यहाँ , 

लुटाता रहा चाहत में इसके

काम ऐसा करने लगा कि, 

थकान नही होती है कामो में।

भारी भीड़ से डर लगता है, 

अकेला दिखता हूँ राहो में।

अब तो राहों में केवल 

कदम दिखते है, इंसान नही 

भटक रही निगाहे मेरी, 

इंसानियत ढूढ़ता हूँ इंसानों में।


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श्याम कुमार कोलारे

छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश

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