आज कल उखड़े-उखड़े से, मिजाज लगते है
पता नही बेबजह गुस्से से, सुर्ख गाल लगते है
साथ खेला करते थे, उठापटक कभी नादानी में
आज सचमुच वह नादानी, अखाड़े से लगते है।
सोच एक सी होती थी, अक्सर दोस्तो अपनी
कभी थाली की रोटी, छीनकर खा जाते थे
वो पल याद है आज, महंगी थी रिश्तों की ड़ोर
आज उनके बेरुखी के आलम, सस्ते से लगते है।
गप्पे में गुज़रे घंटो कभी, बेकाम ही हम अच्छे थे
न कोई अपना न कोई पराया, एक सा समझते थे
आज क्यो उस गली से, गुजरने से झिझकते है।
आसमान भागता था संग, जब राहो पे चलते थे
कभी एक कभी दो नही, पूरे रिश्ते अपने थे
भाईचारा ऐसा था मानो,सहोदर सा बन जाते थे
आज क्या हुआ, जिगरी भी पराये से लगते है।
किसने दूषित किया हवा को, जिसमे खुशबू थी
किसने उजाड़ा गुलशन को, जिसमे तितलियाँ थी
आज फिजाओं ने क्यों, अपना रुख है मोड़ लिया
पता नही क्यों सावन भी,अब पतझड़ से लगते है।
मत भूलो ये हवा गंदी सी, साफ कभी तो होगी
फिर हँसती हुई फिजा, मुस्कान हमे तो देगी
आज समय के साथ हम, दूर तक क्यों चले गए
दूर भले है हम आज, कितने पास से लगते है।
स्वरचित कविता
श्याम कुमार कोलारे,
चारगांव प्रहलाद, छिन्दवाड़ा (मध्यप्रदेश)
मोबाइल- 9893573770
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