मैं धरा हूँ युध्द क्षेत्र की,
बदलती रहती हूँ स्थल अपना,
समय की बहती धार के संग-संग,
मोक्ष है जो सदियों से,
मुझे कभी मिला ही नहीं !
मानव जाति की उत्पत्ति से,
रहा सदियों से नाता मेरा,
लालच और स्वार्थ ही तो
क्यूंकि आभूषण रहे
सदियों से मानव क़ौम के,
इसी अस्त्र-शस्त्र के दम पर
सुलगती रहती हूँ पल-पल,
अहंकारी मानव मन में !
कहते रहे सदैव यही,
जीत सत्य की हुई मुझी पर,
पर अपराध क़तले आम का,
लगता रहा मेरे ही दामन पर !
गँवाए मानव जाति ने प्राण,
मुझ पर हुए मानव के ही
अत्याचारी रौद्र रूप से !
उचित नहीं है ये भी तो
कसौटी क्या होती रहेगी,
सभ्यताओं के बलिदान से ही,
कितने ही योध्दाओं को खोया,
कितने वीर शहीद हुए,
कितने ही भूभाग हुए रक्त रन्जित,
मेरे ही आंचल में लड़ कर !
दस्तूर गज़ब है मानव मन का,
स्वार्थ अपने वश होकर जग में,
मुझको बदनाम किया,
दंभ विजय की खातिर,
सदा मुझको ही कलन्कित किया !
पीड़ा दी पावन धरा को,
ममता था जिसका धरम,
युध भूमि बनाकर इसको
कुरुक्षेत्र का नाम दिया !
मुनीष भाटिया
178 सेक्टर 2
कुरुक्षेत्र
7027120349
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