सशक्त समाज निर्माण के लिए आवश्यक है आपसी एकता एवं परस्पर सामंजस्य Mutual unity and harmony are essential for building a strong society.

सशक्त समाज निर्माण के लिए आवश्यक है आपसी एकता एवं परस्पर सामंजस्य Mutual unity and harmony are essential for building a strong society.

सशक्त समाज निर्माण के लिए आवश्यक है आपसी एकता एवं परस्पर सामंजस्य

आज जब समाज की वास्तविक स्थिति को समझने का अवसर मिला, तब यह प्रश्न मन में गहराई से उतर गया कि हमारा समाज इतना पीछे और कमजोर क्यों दिखाई देता है। इसका उत्तर किसी बाहरी कारण में नहीं, बल्कि हमारी आंतरिक कमजोरियों में छिपा है। जिस समाज में अपने ही लोगों के बीच आपसी एकता, साझा विचारधारा और समन्वय का अभाव हो, वह समाज चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, अंततः कमजोर ही सिद्ध होता है। विडंबना यह है कि आज अनेक समाज एक मंच पर होने के बावजूद भी एक-दूसरे को मजबूत करने के बजाय अपनी-अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं। यह शक्ति प्रदर्शन समाज के हित में नहीं, बल्कि व्यक्तिगत वर्चस्व, पद और सत्ता की लालसा से प्रेरित है। एक-दूसरे को आगे बढ़ाने की सोच के स्थान पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति पनप रही है। ऐसे में समाज की जड़ें धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही हैं, और हमें इसका आभास भी नहीं हो पा रहा। हम अक्सर कहते हैं कि “एकता में ही शक्ति है”, लेकिन क्या हम वास्तव में इसे स्वीकार कर अपने जीवन में उतारते हैं? यदि ऐसा होता, तो आज समाज पद, प्रतिष्ठा और एकमेव नेतृत्व की दौड़ में इतना बंटा हुआ नहीं होता। संगठित समाज वही होता है, जो सामूहिक नेतृत्व को स्वीकार करे, जहां जिम्मेदारियां साझा हों और निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाएं। केवल वही समाज लंबे समय तक अपना वर्चस्व, सम्मान और अस्तित्व बनाए रख सकता है।

आज एक ही जाति, एक ही संगठन और एक ही उद्देश्य से जुड़े होने के बावजूद हम उपजाति, उपगोत्र और अलग-अलग विचारधाराओं में इस कदर बंट चुके हैं कि समाज का व्यापक हित पीछे छूट गया है। समाज उत्थान के विषयों पर चिंतन करने के बजाय हम केवल अपने व्यक्तिगत विकास, अपनी पहचान और अपने लाभ तक सीमित हो गए हैं। यह सोच न केवल समाज को कमजोर करती है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी गलत उदाहरण प्रस्तुत करती है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि समाज की आवश्यकता हमें केवल विशेष अवसरों पर ही याद आती है। जब कोई सामाजिक कार्यक्रम हो, मांगलिक अवसर आएं, विवाह हेतु वर या वधू की खोज करनी हो या किसी आपसी विवाद का निपटारा करना हो—तभी समाज की भूमिका महत्वपूर्ण लगती है। शेष समय समाज से हमारा कोई सरोकार नहीं रहता। यह व्यवहार दर्शाता है कि हमने समाज को एक जीवंत इकाई नहीं, बल्कि एक सुविधा मात्र बना लिया है। समाज में कुछ चुनिंदा चेहरे ऐसे भी हैं, जो वर्षों से स्वयं को समाज का नेता घोषित किए बैठे हैं। समाज के नाम पर अपना वर्चस्व बनाए रखना ही उनका उद्देश्य बन गया है। वे न तो सही मायनों में समाज से जुड़ पाए हैं और न ही स्वयं से। सामाजिक एकता की बात तो करते हैं, लेकिन व्यवहार में मनमाने तरीके अपनाकर अपनी बात थोपने का प्रयास करते रहते हैं। परिणामस्वरूप समाज में विश्वास के स्थान पर असंतोष और दूरी बढ़ती जाती है।

आज आवश्यकता है आत्ममंथन की। समाज को मजबूती प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि सभी को एक मंच पर लाया जाए—ऐसा मंच जहां हर व्यक्ति को सोचने, बोलने और अपने विचार रखने की स्वतंत्रता हो। विचारों का मतभेद समाज को तोड़ता नहीं, बल्कि सही दिशा मिलने पर उसे और अधिक परिपक्व बनाता है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है संवाद, सहिष्णुता और एक-दूसरे को सुनने की भावना। समाज विकास के प्रत्येक मुद्दे पर गंभीरता से विचार होना चाहिए और उन विचारों को केवल बैठकों तक सीमित न रखकर जमीनी स्तर पर कार्य रूप में उतारना चाहिए। शिक्षा, रोजगार, सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन, युवाओं का मार्गदर्शन, महिलाओं का सशक्तिकरण—ये सभी ऐसे विषय हैं, जिन पर संगठित प्रयासों की आवश्यकता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया में समाज के हर वर्ग की भागीदारी अनिवार्य है। युवा, महिलाएं, पुरुष और वरिष्ठजन—सभी का समावेश ही समाज को पूर्णता प्रदान करता है। युवाओं में जोश, ऊर्जा और नवीन सोच होती है, तो वहीं वरिष्ठजनों के पास अनुभव, धैर्य और दूरदर्शिता होती है। जब युवा जोश और वृद्ध अनुभव एक साथ मिलते हैं, तभी समाज सशक्त बनता है और सही दिशा में आगे बढ़ता है। आज का समय केवल आलोचना का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन और सकारात्मक परिवर्तन का है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि समाज कोई बाहरी संस्था नहीं, बल्कि हम सभी का संयुक्त स्वरूप है। यदि हम बदलेंगे, तभी समाज बदलेगा। यदि हम एक-दूसरे को समझने, जोड़ने और आगे बढ़ाने का प्रयास करेंगे, तभी हमारा समाज मजबूत, संगठित और सम्मानित बन पाएगा।  समाज की वास्तविक शक्ति पदों में नहीं, व्यक्तियों की एकता में है। नेतृत्व किसी एक चेहरे का नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना का होना चाहिए। जब हम यह समझ लेंगे, उसी दिन हमारा समाज न केवल अपने भीतर की कमजोरियों से उबर पाएगा, बल्कि एक सशक्त, संगठित और प्रेरणादायी उदाहरण बनकर उभरेगा।

लेखक
श्याम कुमार कोलारे- छिन्दवाड़ा
shyamkolare@gmail.com

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