दुनियाँ की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी “भोपाल गैस त्रासदी” के हुए 41 साल, आज भी उस जहरीली भयंकर रात और डरावने दिन को याद करके लोग सिहर जाते हैं! दुनियाँ की सबसे बड़ी और भयानक औद्योगिक त्रासदी, जिसने चंद घंटों में ही हजारों लोगों की जान ले ली थी। कहने को तो आज इस घटना के 41 वर्ष हो चुके हैं, परन्तु इस भयानक मंजर को याद करें तो आज भी सभी का दिल दहल जाता है। 2-3 दिसंबर 1984 की रात लोगों के लिए मौत का मंजर लेकर आई थी। उस रात हवा में मौत बह रही थी, जो भी उस हवा के संपर्क में आया, मौत उसे पल में अपने आगोश में लेने को आतुर थी। आज भी उस खौफनाक रात को याद कर लोग सिहर जाते हैं! जी हाँ, मैं उसी त्रासदी के बारे में बताने जा रहा हूँ, जो दुनियाँ की सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में इतिहास के पन्नों में दफन है।
इस मंजर को याद करने
से लगता है जैसे उस रात मौत का कहर लोगों को ग्रास बनाने के लिए उनके पीछे दौड़
रहा था। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें, कहाँ जाएँ, किससे सहायता माँगें। बस लोग अपनी जान बचाने के
लिए दौड़े जा रहे थे और जहरीली गैस की चपेट में आकर अपना दम तोड़ते जा रहे थे। उस
काली रात ने लोगों की जीवन-साँसें छीन ली थीं। जिधर देखो उधर लाशों का ढेर नजर आ
रहा था। पशु-पक्षी, मनुष्य—सब के सब लाशों के ढेर के रूप में दिखाई
दे रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे यहाँ मौत का तांडव चल रहा हो। उस रात जहरीली हवा के
संपर्क में आने वाला कोई भी इस कहर से अछूता न रह पाया। सब किसी न किसी प्रकार से
उसके प्रभाव में आए हुए थे।
मौत की इस हवा ने
यूनियन कार्बाइड नामक फैक्ट्री के पास की झुग्गी-बस्ती को सबसे पहले अपना शिकार
बनाया। यहाँ काम की तलाश में दूर-दराज़ गाँवों से आकर लोग रह रहे थे। इन
झुग्गी-बस्तियों में रह रहे कुछ लोग तो नींद में ही मौत का ग्रास बन गए। जब गैस
धीरे-धीरे लोगों के घरों में घुसने लगी, तो लोग घबराकर बाहर
आए, लेकिन यहाँ तो हालात और भी ज्यादा खराब थे। किसी ने रास्ते
में ही दम तोड़ दिया, तो कोई हाँफते-हाँफते मर गया। कोई इस तरह के
मंजर से डरकर अपनी जगह से उठ भी नहीं पाया। कोई भी इस तरह के हादसे के लिए तैयार
नहीं था। जैसे-जैसे रात बीत रही थी, अस्पतालों में भीड़
बढ़ती जा रही थी, लेकिन डॉक्टरों को यह मालूम नहीं था कि हुआ क्या
है और इसका इलाज कैसे करना है। उस समय किसी की आँखों के सामने अंधेरा छा रहा था,
किसी का सिर चकरा रहा था और सांस की तकलीफ तो सभी को थी। कई
लोगों की लाशें तो सड़कों पर ही पड़ी थीं। रेलवे स्टेशन एवं बस स्टैंड में लोगों
का ढेर लगा हुआ था। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें।
इस गैस त्रासदी को 41
साल हो चुके हैं। आइए जानते हैं क्या हुआ था उस भयंकर काली
रात को, जिसने हजारों लोगों को पल में मौत का ग्रास बना
डाला। भोपाल में 2-3 दिसंबर 1984 यानी आज से 41 साल पहले दर्दनाक हादसा हुआ था। इतिहास में यह “भोपाल गैस कांड” या “भोपाल गैस त्रासदी” के नाम से दर्ज है। भोपाल गैस त्रासदी दुनियाँ की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना मानी जाती है। 2-3
दिसंबर 1984 की रात भोपाल स्थित कीटनाशक
बनाने वाली “यूनियन कार्बाइड” कंपनी के कारखाने से एक जहरीली गैस “मिथाइल आइसोसाइनाइड” का रिसाव हुआ। दरअसल,
यहाँ प्लांट को ठंडा रखने के लिए मिथाइल आइसोसाइनाइड नाम की
गैस को पानी के साथ मिलाया जाता था, लेकिन उस रात इसके
संयोजन में गड़बड़ी हो गई और पानी लीक होकर टैंक में पहुँच गया। इसके बाद प्लांट
के 610 नंबर टैंक में तापमान और प्रेशर बढ़ गया। इसके बाद गैस का
रिसाव तेजी से होने लगा। देखते ही देखते हालात बेकाबू हो गए और जहरीली गैस पूरे
भोपाल शहर में फैल गई। यह गैस हवा के साथ मिलकर आसपास के इलाकों में फैल रही थी।
इसके बाद भोपाल में
लाशों के ढेर लग गए। अस्पतालों में मरीजों की लंबी लाइन लग गई। बताते हैं कि उस
समय फैक्ट्री का अलार्म सिस्टम भी घंटों तक बंद रहा था, जबकि उसे तुरंत बजना चाहिए था। जैसे-जैसे रात बीत रही थी, अस्पतालों में भीड़ बढ़ती जा रही थी, लेकिन डॉक्टरों को
यह मालूम नहीं था कि हुआ क्या है और इसका इलाज कैसे करना है। एक अनुमान के मुताबिक
सिर्फ दो दिनों में ही 50 हजार से ज्यादा लोग इलाज के
लिए पहुँचे थे, जिससे लगभग 15,000 लोगों की जान गई और कई लोग अनेक प्रकार की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के
शिकार हुए, जो आज भी त्रासदी की मार झेल रहे हैं। सरकारी
आँकड़ों के अनुसार भोपाल गैस त्रासदी में कुल 3,787 मौतें हुई थीं, लेकिन गैस कांड के अगले तीन-चार दिनों में हुए
अंतिम संस्कारों के आँकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। गैस कांड के बाद वन विभाग के
डिपो से दाह-संस्कारों के लिए इतनी लकड़ियाँ गईं कि पाँच हजार से अधिक अंतिम
संस्कार किए जा सकते थे। यह संख्या तो केवल दाह-संस्कारों की है, इसके अतिरिक्त अन्य तरीकों से हुए अंतिम संस्कार जोड़ दें तो यह आँकड़ा सरकारी
आँकड़ों से कहीं अधिक प्रतीत होता है।
इस हादसे का मुख्य
आरोपी था वॉरेन एंडरसन, जो इस कंपनी का सीईओ था। 6
दिसंबर 1984 को एंडरसन को गिरफ्तार भी
किया गया, लेकिन अगले ही दिन 7 दिसंबर को उसे सरकारी विमान से दिल्ली भेजा गया और वहाँ से वह अमेरिका चला
गया। इसके बाद एंडरसन कभी भारत नहीं लौटा। कोर्ट ने उसे फरार घोषित कर दिया था। गैस
लीक होने के 8 घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैस के असर से मुक्त
मान लिया गया, लेकिन 1984 में हुई इस दुर्घटना से मिले जख्म 41 साल बाद भी नहीं भरे
हैं। इस फाइल को भी संभवतः किसी रद्दी कागजों की फाइल में किसी कोने में दफना दिया
गया होगा। किंतु आज भी उस हादसे के प्रभाव में आए लोग, जो किसी तरह बच गए थे, पथराई आँखों से न्याय का
इंतजार कर रहे हैं। इस प्रकार का हादसा भविष्य में कभी न हो, इसका उचित प्रबंध किया जाए और गैर-जिम्मेदारों पर कड़ा शिकंजा कसा जाए।
बेशक यह एक बहुत
बड़ा औद्योगिक हादसा था, लेकिन जिस तरह का वायु
प्रदूषण और उसके भीषण प्रभाव उसने भोपाल के पर्यावरण पर छोड़ा, वह आज भी दिखाई देता है। यह गैस भोपाल के तालाबों के पानी और वहाँ की हवा में
लंबे समय तक घुली रही और आज 41 साल बाद भी इसका असर दिखाई
देता है। उस हादसे में बचे लोगों की सेहत पर ऐसे असर हुए कि उन्हें कैंसर और अन्य
गंभीर बीमारियाँ हुईं, जिनका इलाज मरते दम तक चलता
रहा और आज भी बचे लोगों का इलाज जारी है।
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक
कार्यकर्त्ता, छिन्दवाड़ा (मध्यप्रदेश)
shyamkolare@gmail.com


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