व्यंग- "भगवान की बेरुखी से मुंगीलाल बना नेता"

व्यंग- "भगवान की बेरुखी से मुंगीलाल बना नेता"

 व्यंग- "भगवान की बेरुखी से मुंगीलाल बना नेता"


गाँव में एक हमारे परम मित्र है मुंगीलाल। ये हमारे परम मित्र तो है ही बाद में हमारे गुरु बन गए। हमारी पढ़ाई-लिखाई को एक तरफा करके भाई वे ही हमसे इतना दूर निकल गए कि अब उनसे निलने के लिए जुगत लगानी पड़ती है। नाम तो ऐसा जैसे कोई पंडित जी के बेटे हों, पर हालात ऐसे जैसे भगवान ने खुद लिखाई में स्याही कम कर दी हो। न काम करते, न काज के, बस दिन भर आसमान ताकते हुए भगवान को कोसते रहते थे। चेहरे पर ऐसा दर्द, मानो पकोड़ी के साथ चटनी न मिली हो!
मुंगीलाल का एक ही राग था – "भगवान ने मेरे साथ अन्याय किया है।" वो कहते, "जिसके पास पहले से पैसा है, भगवान उसी की जेब में और पैसा ठूँसता है। और हमारे जैसे बेचारे, जो पहले ही फटेहाल हैं, उनके लिए केवल आधे पेट रोटी  और तन पर चिथड़े हैं।"
एक दिन हमने कहा, "मुंगीलाल, भगवान को रोज़ गाली देने से पेट नहीं भरता। कुछ काम-धंधा कर लो।"
मुंगीलाल बोले, "काम? भगवान ने दिया क्या है जो मैं करूँ? ऊपर से मेहनत करूँ और फिर भी कुछ न मिले? भगवान अब अफसर हो गए हैं—बिना रिश्वत लिए कोई फाइल आगे नहीं बढ़ाते। और हम गरीबों की फाइल तो जन्म के समय से ही पेंडिंग है।"
अब गाँव में दो तरह के लोग थे—एक वो जो मुंगीलाल जैसे थे, और दूसरे वो जिनके पास धन, दौलत, गाड़ी, बंगला और दिखावे की मुस्कान थी। मतलब 90 प्रतिशत जनता मुंगीलाल क्लब में थी, और 10 प्रतिशत ‘भगवान के डाइरेक्ट कस्टमर’।
मुंगीलाल का दर्द इतना बढ़ गया कि एक दिन उन्होंने फैसला कर लिया—अब भगवान से कोई शिकायत नहीं, कोई गुहार नहीं, कोई रिश्वत नहीं। अब जीवन का नया पाठ पढ़ा जाएगा—“भगवान को भूलो, नेता को पकड़ो।”
अगले दिन से मुंगीलाल में ग़ज़ब का बदलाव आया। पहले वो अकेले में बड़बड़ाते थे, अब लोगों के सामने भाषण देने लगे। बोले, "अगर भगवान सुनते नहीं, तो हम भी अब राजनीति की डगर पकड़ेंगे।"
और क्या गजब की पकड़ थी! जो कभी दूसरों की थाली में झाँकते थे, अब खुद पार्टी की थाली के मालिक बन गए। दिन में चाय की दुकान पर बेतुकी बातें करते, रात को किसी छुटभैये नेता के पैर दबाते। एक नेता के पालतू बनते-बनते इतने आदर्श सेवक बन गए कि उन्हें खुद भी नहीं पता चला कि वो कब जनसेवक बन बैठे।
चुनाव आया, मुंगीलाल ने नामांकन भरा। चुनाव चिन्ह मिला – चप्पल। बोले, “ये प्रतीक है संघर्ष का… और हम गरीबों की ज़िंदगी की असली पहचान।” जनता ने सोचा, "कम से कम ये आदमी तो हमारे जैसा है" – और वोट दे डाला।
आज मुंगीलाल के पास सब कुछ है – बंगला ऐसा जैसे हवेली में भूत रहते हों, गाड़ी ऐसी कि बैल भी शर्म से पानी माँग ले, कपड़े ऐसे कि खुद दर्जी चकरा जाए। कभी जो खुद को भगवान का परित्यक्त समझते थे, अब भगवान को छोड़कर वोट बैंक की पूजा करने लगे हैं।
गाँव के लोग पूछते, “मुंगीलाल, अब तो सब कुछ है… भगवान को माफ कर दिया?”
मुंगीलाल बोले, “भगवान को तो मैंने तभी छोड़ दिया जब समझ आया कि वो सिर्फ अमीरों की सुनते हैं। अब मैं खुद ही भगवान बन गया हूँ—जनता की अर्ज़ियाँ सुनता हूँ, लेकिन हल वही जो मेरी जेब से मेल खाए।”
अब गाँव का हर तीसरा आदमी मुंगीलाल की राह पर चलना चाहता है। नतीजा यह है कि गाँव में अब किसान कम, और ‘नेता इन ट्रेनिंग’ ज्यादा हो गए हैं।
कभी मंदिर के बाहर भीख माँगने वाले मुंगीलाल, अब अपने दरबार में लोगों को इंतज़ार कराते हैं। और मजे की बात, अब वो भी रिश्वत लेते हैं – बोले, “सीखा तो भगवान से ही है… जो ऊपर बैठकर भी सुनते नहीं, तो मैं नीचे रहकर क्यों सुनूँ?”

लेखक
श्याम कुमार कोलारे

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