कहानी: दो बीघा खेत
गर्मियों की दोपहरी थी। गाँव के कच्चे रास्ते धूल से भरे थे और सूरज मानो आसमान से आग बरसा रहा था। बेलपानी गाँव का किसान सुदामा अपने खेत के किनारे खड़ा होकर दूर तक सूखी पड़ी ज़मीन को निहार रहा था। उसकी आँखों में थकावट थी, माथे पर चिंता की लकीरें और दिल में टूटती उम्मीदें।
सुदामा के पास कुल दो बीघा ज़मीन थी—बस इतनी सी ज़िंदगी थी उसकी। पहले इसी ज़मीन से घर चलता था, पर अब... अब फसल होती भी थी तो इतनी कम कि घर चलाना दूभर हो जाता। बीज, खाद, पानी—सब कुछ महंगा हो गया था और खेत में पानी की कमी ने उसकी कमर तोड़ दी थी।
घर लौटने पर पत्नी सुधा ने चुपचाप पानी का लोटा थमाया। महक और आदि—दोनों बच्चे भी बुझे-बुझे कोने में बैठे थे। सुधा जानती थी कि कुछ पूछना बेकार है, क्योंकि जवाब में सुदामा की आँखें ही सब कुछ कह देती थीं।
सुधा, गाँव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ी थी। हालाँकि दसवीं के आगे पढ़ाई नहीं हो सकी, पर उसमें समझ की कमी नहीं थी। उसने हमेशा चाहा कि उसकी बेटी महक पढ़े, खूब पढ़े। गरीबी से लड़ने की सबसे मजबूत तलवार वही समझती थी—शिक्षा।
महक तेज़ थी। स्कूल में उसे विज्ञान में विशेष रुचि थी। एक दिन वह घर लौटी तो उसकी आँखों में उत्साह था। “माँ, किताब में पढ़ा है कि खेत की मिट्टी की जाँच करवाई जाए तो पता चलता है कि उसमें क्या कमी है। और सही तकनीक अपनाने से कम पानी में भी अच्छी खेती हो सकती है।”
सुधा को बात समझ में आई। उस रात उसने सुदामा से कहा, “महक कह रही थी कि मिट्टी की जांच से फायदा हो सकता है। क्यों न इस बार वही कर लिया जाए?”
सुदामा ने थककर कहा, “बच्ची है सुधा, क्या समझेगी खेती-बाड़ी? किताबें पढ़ने से खेत नहीं उगते।”
सुधा चुप रही, पर अगली सुबह महक खुद अपने स्कूल के अध्यापक को लेकर घर आ गई। शिक्षक ने सुदामा को विस्तार से बताया कि कैसे कम पानी में भी आधुनिक तकनीकों जैसे ड्रिप सिंचाई, जैविक खाद, मल्चिंग इत्यादि से उपज बढ़ाई जा सकती है।
सुदामा को बात थोड़ी जमी, और उसने मिट्टी की जाँच के लिए सहमति दे दी। रिपोर्ट आई, तो पता चला कि मिट्टी में नाइट्रोजन की भारी कमी थी। शिक्षक ने जैविक खाद और तकनीकी उपाय बताए।
सुदामा ने पहली बार जैविक तरीके से खेती की शुरुआत की। गोबर खाद, नीम की खली और वर्मी कम्पोस्ट डाला। महक हर दिन खेत में जाती, अपने बाबा को तकनीकें बताती—कहाँ पानी देना है, कहाँ पौधों के बीच दूरी रखनी है, और कैसे फसल चक्र से मिट्टी की ताकत बनी रहती है।
धीरे-धीरे खेत में हरियाली लौटने लगी। जहाँ पहले सूखी पड़ी ज़मीन थी, वहाँ अब पौधे झूमने लगे थे। बारिश भी इस बार कुछ ठीक-ठाक हुई। महक की मेहनत और सुदामा का भरोसा एक नई दिशा की ओर चल पड़ा था।
जब फसल कटी, तो चमत्कार हुआ।
जहाँ पहले बमुश्किल दो क्विंटल अनाज मिलता था, वहाँ इस बार आठ क्विंटल की उपज हुई। पूरे गाँव में सुदामा के खेत की चर्चा होने लगी। लोग पूछते, “भई, क्या किया इस बार?” और सुदामा मुस्कुराकर कहता, “मेरी बेटी ने बताया था सब।”
उस शाम, जब फसल के ढेर के सामने पूरा परिवार बैठा था, सुदामा की आँखों से आँसू बह निकले। “सुधा, आज अगर तूने और महक ने ज़ोर न दिया होता, तो ये खेत अब भी सूखा पड़ा होता। मेरी बेटी ने मुझे किसान बनाया।”
महक शरमा गई, पर उसकी आँखों में चमक थी—सपने पूरे होने की।
अब सुदामा पहले जैसा गरीब किसान नहीं था। गाँव के लोग उसकी बात सुनने लगे। वह सिर्फ अपने खेत तक सीमित नहीं रहा—अब वह गाँव की चौपाल में सबको समझाने लगा कि बेटियों को पढ़ाओ। उसने अपने अनुभव साझा किए, बताया कैसे उसकी बेटी की शिक्षा ने उसकी ज़िंदगी बदल दी।
एक दिन, गाँव की चौपाल में सुदामा ने सबके सामने कहा—
“जब तक हम बेटियों को सिर्फ घर की ज़िम्मेदारी मानते रहे, हम गरीब ही रहे। मेरी बेटी ने पढ़ाई की, और वही पढ़ाई मेरे खेत में हरियाली बनकर आई। अब मैं चाहता हूँ कि इस गाँव की हर लड़की स्कूल जाए, ताकि और भी खेत हरे हो सकें, और भी घर उजले हो सकें।”
उसके इस वाक्य ने गाँव के दिलों को छू लिया। धीरे-धीरे गाँव में बदलाव आने लगा। पहले जहाँ लड़कियों को स्कूल भेजना जरूरी नहीं समझा जाता था, अब वे किताबें लेकर सुबह स्कूल जाती थीं। गाँव की गलियों में अब सिर्फ बैलों की आवाज़ नहीं, बच्चियों की हँसी भी गूंजती थी।
महक अब सिर्फ सुदामा की बेटी नहीं, पूरे गाँव की प्रेरणा बन चुकी थी।
और यह बदलाव सिर्फ अनाज का नहीं था—यह आत्मनिर्भरता का, विश्वास का, और बेटी की ताकत का बदलाव था।
आज भी जब सूरज उगता है, सुदामा अपने हरे-भरे खेत में खड़ा होकर आसमान की ओर देखता है—पर अब उसकी आँखों में सवाल नहीं, संतोष होता है। और वह जानता है-
जिस घर शिक्षित बेटी-बेटा, उस घर दुर्भाग्य भागेगा।
बेटी गर अच्छे से पढ़ गई , दोनों कुल जागेगा।
श्याम कुमार कोलारे
छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश
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