बुढ़ापा ( जीवन की एक संघर्ष भरी कहानी)

बुढ़ापा ( जीवन की एक संघर्ष भरी कहानी)


शहर से लौटते हुए कदम खुद-ब-खुद उस रास्ते की ओर मुड़ गए, जहाँ कभी मेरी ज़िंदगी की सबसे कीमती सीखें मिला करती थीं। वो पुराना सा घर, जिसके आँगन में खेलते हुए मैंने बचपन जिया था। वहीं खाट पर बैठा एक बूढ़ा चेहरा, जो कभी मेरी हर जिज्ञासा का जवाब होता था—आज एक थकी हुई परछाई बन गया था।

"बाबा!" मैंने पुकारा।

धूप से झुलसी झुर्रियों वाली आँखें हल्के से खुलीं और एक धीमी आवाज आई—
"कौन? कान्हा है क्या?"
"हाँ बाबा, मैं ही हूँ..."

वो हल्की सी मुस्कराहट, जिसमें एक बनावटी जीवन्तता छिपी थी, चेहरे पर उभरी।
"कैसे हो बाबा? बड़े कमजोर लग रहे हो…"
बाबा ने मज़ाकिया लहजे में कहा,
"कमजोर तो हूँ बेटा, उम्र तो 60 की है, पर लगता है जैसे 80 पार कर चुका हूँ…"

मैं मुस्कुराया, पर उस मुस्कान में चिंता थी।
"पर बाबा, सब तो ठीक है न? अच्छा घर है, सब साथ हैं, फिर क्या हुआ जो आप इतने बुझ से दिखते हैं? एक साल पहले जब मैं गया था, तो आप वही सजीले, ऊर्जावान बाबा थे... अब ये उदासी क्यों?"

शायद मेरे सवाल ने उनके भीतर की चुप्पी को तोड़ दिया। उन्होंने मुझे पास बैठने का इशारा किया।
धीरे से बोले—
"बेटा, मेरे इस हाल को समझना है, तो थोड़ा अतीत में झांकना पड़ेगा… सुनोगे?"
मैंने सिर हिलाया।

"शादी के एक साल बाद तक अपने पिता के साथ रहा। पर माँ के गुज़रने के बाद मौसी माँ ने मुझसे जैसे दूरी बना ली। एक दिन उन्होंने साफ कह दिया—अब तुम यहाँ से चले जाओ। और पिताजी ने भी कुछ नहीं कहा... बस चुप रहे।"

बाबा की आवाज़ अब भी शांत थी, पर उसमें एक गहरी टीस थी।
"तब पत्नी का हाथ पकड़ा और यहाँ, अपने ससुराल में आ गया। तीन साल यहीं रहा, पूरी इज़्ज़त मिली, सबके साथ घर संभाला। पर कब तक ससुराल में रहा जा सकता है? एक खेत के कोने में झोपड़ी बना ली और वहीं से ज़िंदगी की असली लड़ाई शुरू हुई।"

उन्होंने लंबी साँस ली और बोले—
"मजदूरी की, शहर जाकर हमाली की। दिन के 50-80 रुपये मिलते थे। पर मन में सपना था—अपने बच्चों को पढ़ाना है, उन्हें आगे बढ़ाना है। बेटियों को जितना बन पड़ा, पढ़ाया-लिखाया। बेटे को खूब पढ़ाया, आज एक बड़ी कंपनी में मैनेजर है।"

उनकी आँखों में एक पल को चमक आई।
"आज वो अच्छा कमा रहा है, और भगवान से यही दुआ करता हूँ कि उसका भला हो, तरक्की करे।"

फिर उनके स्वर में एक उदासी घुल गई—
"वही बेटा, जिसने इस घर को सजाया, उसकी सलाह से बदलाव हुए। और अब..."

वो रुक गए। मैं जानता था, आगे जो कहेंगे, वो दर्द से भरा होगा।

"अब हम उसी घर में स्टोर रूम में रहते हैं बेटा। जहाँ कभी बच्चों के खिलौने और टूटे सामान रखे जाते थे, अब वहीं हम दो बुज़ुर्ग हैं।"

उनकी आँखें भर आईं।
"खाना भी अलग बनाते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे हमारे लिए इस घर में कोई जगह ही नहीं। जैसे हम बोझ हो गए हैं..."

मैं चुप था। मेरे भीतर कुछ टूटने लगा था।
"हम सोचते थे कि बुढ़ापे में सुकून मिलेगा, बेटा-बहू सेवा करेंगे, पर अब लगता है, हमारी जरूरत ही खत्म हो गई है।"

बाबा की आँखों से आँसू बहने लगे।
"हमने ये घर खून-पसीने से बनाया, सपना देखा था कि यही हमारा आखिरी ठिकाना होगा, पर अब लगता है, बस एक कोना भर है हमारे हिस्से में।"

मैं कुछ कह नहीं पाया। जैसे मेरे भीतर एक सन्नाटा भर गया हो।
बाबा कुछ और कहना चाहते थे, पर शब्द उनके गले में ही अटक गए।
उनकी आवाज़ सिसकियों में बदल गई थी।

मैंने उनके कांपते हाथों को थामा।
उनके स्पर्श में अब वो गर्माहट नहीं थी, जो बचपन में हुआ करती थी।
वो ठंडा, थका हुआ और अकेला था।

"बाबा…" मैंने कहा,
"आपने हमेशा मुझे सिखाया कि जीवन संघर्ष से भरा है, लेकिन उम्मीद कभी नहीं छोड़नी चाहिए। आप तो मेरे आदर्श रहे हैं, और रहेंगे। मैं वादा करता हूँ, अब आपको कभी अकेला नहीं छोड़ूंगा।"

बाबा ने मेरी ओर देखा, आँखों में कुछ विश्वास लौटा।
वो मुस्कराए, एक असली मुस्कान, जो दिल से निकली थी।

उस दिन मुझे समझ आया कि बुजुर्गों के लिए बुढ़ापा एक शारीरिक अवस्था नहीं, बल्कि सामाजिक उपेक्षा की परिणति है। जिस घर को उन्होंने बनाया, उसी में उन्हें एक कोना देकर भुला दिया जाता है।

"एक कोना भर बुढ़ापा"—ये सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक सच्चाई है जो हर गली, हर मोहल्ले के किसी बाबा या दादी के जीवन में कही न कही घट रही है।

हमें सोचना होगा—क्या हम भी अपने अपनों को सिर्फ एक कोने में सिमटा रहे हैं?


(लेखक- श्याम कुमार कोलारे, सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक, स्वतंत्र लेखक)


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