पड़ा खाट पर बूढ़ा बाबा,करा रहा है दे आवाज
लगी भूख उधर जल
रहा,भोज अग्नि से कोई सींच ।
बना कलेवा बाबा
का, ग्रहलक्ष्मी ले आई थाल
पकवान थे नाना
किस्म के,कैसे खाए नहीं थे दांत
।
मन रोया और तन
थर्राया,बूढ़ी अवस्था की है भान
जब युवा था तब
तो मैंने,खूब चखे थे इनके स्वाद
।
नित्य सेवा में
जागे सुत,बूढ़ा बरगद को टेक लगाए
इसकी छाया में
निर्मम,शीतलता है सबको भायें
।
मन तृप्त था
सेवा से अब,दिया सुत-बहू को आशीष
विपदा न कभी आन
पड़े,नहीं झुकेगा तेरा शीश
।
भानू का प्रकाश चीरकर,एक पल में आया अंधकार
यमलोक के बुलावा
से,नहीं करे कोई इनकार ।
बूढ़ा बरगद उखड़
गया अब,शीतल छाया मुरझाई
इस पेड़ जाने से
सारी,धरती पर थर्राराई ।
उठ गया सिर का
साया ,जिसने थमा था हाथ
कोई ना ले पाया
जगह,जिसने दिया जीवन भर साथ
।
यू कैसे भूल जाए
इनको,समर्पित सारा जीवन था
हर खुशी में
पीछे रहते,दुख में हरदम आगे था
।
श्राद्ध उन्हीं
का हम मनाते,पितृलोक से इन्हें बुलाते
श्रद्धा है इनके
आन की,इनसे मिली पहचान श्याम की
।
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