कच्चे घरों से जुड़े रिश्तों की मिठास
"बचपन की यादें और गाँव का जीवन"
मुझे याद है कि बचपन में हम गाँव में रहते थे। वह समय कुछ अलग ही था—सच्चा, सरल और भावनाओं से भरा हुआ। हमारे पास बड़ा भरपूर परिवार था। घर के मुखिया दादाजी थे, और हम सब—चाचा, बुआ, माँ, पिताजी—सभी एक ही घर में संयुक्त रूप से रहते थे। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो वह घर मुझे किसी मंदिर से कम नहीं लगता, जहाँ हर कोने में अपनापन और हर दीवार पर हँसी-खुशी की गूंज सुनाई देती थी। यह घर जिंदादिल था, जहाँ सुबह से शाम तक रौनक लगी रहती थी और हर दिन जैसे एक उत्सव जैसा प्रतीत होता था। बचपन के वे दिन मेरी जिंदगी के सबसे कीमती पल थे। दादा-दादी और चाचा-बुआ के हाथों का मैं जैसे कोई खिलौना था। सब मुझे इतना दुलारते कि मुझे कभी अकेलेपन का अहसास ही नहीं हुआ। उनके असीम प्यार में ही मैंने अपना बचपन जिया। समय कैसे बीत गया, यह पता ही नहीं चला।
हमारा घर उस दौर में कच्ची मिट्टी और खपरैल से बना हुआ था। न पंखा था, न कूलर। फिर भी न तो हमें गर्मी सताती थी और न ही ठंडी की रातों में ठिठुरन महसूस होती थी। सर्दी में कपड़ों की बनी मोटी "पल्ली" हमें ऐसी गर्माहट देती कि नींद और भी मीठी हो जाती थी। गर्मियों की रातों में घर के आँगन में चारपाई पर सोना और तारों भरे आसमान को निहारते हुए कहानियाँ सुनना, आज भी दिल को सुकून देता है। कच्चे घर भले ही कमजोर होते थे, लेकिन रिश्तों की नींव बेहद मजबूत होती थी। पूरा परिवार एक-दूसरे के लिए जीता था। अगर किसी को कोई परेशानी होती तो बाकी सब मिलकर उसका हल ढूँढते। यही अपनापन पड़ोसियों तक भी फैला हुआ था। गाँव का माहौल ऐसा था कि पड़ोसी भी अपने ही घर का हिस्सा लगते थे। गाँव के बच्चों के खेल आज के मोबाइल और वीडियो गेम्स से कहीं अलग और अनमोल थे। गिल्ली-डंडा, कंचे, लुका-छिपी, गदा-पिटी, चोर-पुलिस जैसे खेल न केवल मनोरंजन देते थे बल्कि उनमें जीवन के गहरे संदेश भी छिपे होते थे। ये खेल हमें आपसी सहयोग, एकता और निष्पक्षता का पाठ सिखाते थे। खेलने के दौरान किसी का हारना-जीतना भी नाराज़गी का कारण नहीं बनता, बल्कि और ज्यादा दोस्ती और अपनापन बढ़ाता था।
जब बच्चे खेलते, तो पूरा गाँव जैसे एक परिवार की तरह उन्हें देखता और खुश होता। उस दौर में "हम" का भाव "मैं" से कहीं ज्यादा बड़ा था। गाँव की सादगी भरी जीवनशैली भी निराली थी। घर के पीछे बनी बाड़ी (सब्जी बगिया) से ताजे फल और सब्जियाँ मिलती थीं। दादी द्वारा बनाए गए देशी खाने की खुशबू आज भी मन मोह लेती है। कुएँ या झीरिया का पानी इतना मीठा और शुद्ध होता कि लगता मानो उसमें मिश्री घुली हो। भोजन में भले ही बहुत विविधता न होती, पर वह पोषण और स्वाद से भरपूर होता था। गाँव का वातावरण स्वच्छ, शांत और ताजगी से भरा होता था। सुबह सूरज की पहली किरण के साथ पक्षियों का चहचहाना सुनाई देता और शाम को ढलते सूरज के साथ पूरा आकाश लालिमा से भर जाता। ये दृश्य किसी भी कलाकार की पेंटिंग से सुंदर लगते थे।
गाँव के जीवन की सबसे बड़ी पूँजी थे बुजुर्ग। दादी-नानी के घरेलू नुस्खे हर बीमारी का इलाज होते थे। दादा-नाना के कहानी-किस्से सिर्फ मनोरंजन नहीं करते, बल्कि जीवन के गहरे अनुभव और सीख भी देते थे। उनकी डांट भी प्यार से भरी होती थी, जो हमें सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करती थी। उन दिनों परिवार का हर सदस्य एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदार होता था। बड़े बच्चों की जिम्मेदारी छोटे भाई-बहनों की देखभाल होती, और इस तरह सबमें जिम्मेदारी का भाव बचपन से ही विकसित होता था। जब शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी देखता हूँ तो वह गाँव का जीवन किसी पुराने सपने जैसा लगता है। शहर में भले ही पक्के मकान, बड़ी-बड़ी इमारतें, एसी और फ्रिज हों, लेकिन वहाँ वह आत्मीयता और सुकून नहीं जो गाँव के कच्चे घरों और मिट्टी की खुशबू में हुआ करती थी। आज लोग एक ही छत के नीचे रहकर भी अकेलेपन का शिकार हैं। रिश्तों में पहले जैसी गर्माहट नहीं रही। गाँव की सादगी, अपनापन और सहजता अब कहीं खोती जा रही है। बचपन के वे दिन, वह कच्चा घर, परिवार का प्यार, दादी-दादा की कहानियाँ, बाड़ी के ताजे फल, कुएँ का मीठा पानी और गाँव के खेल—ये सब अब यादों का खजाना बन चुके हैं। वे दिन लौटकर तो नहीं आएँगे, पर उनका एहसास आज भी मन को सुकून देता है। काश, कोई लौटा दे वो प्यारे-प्यारे दिन, जब सारे दिन बस खेल, हँसी और अपनापन ही जिंदगी का सबसे बड़ा सुख हुआ करता था।
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