स्त्री विमर्श
स्त्री को देह से पृथक न देख पाना हमारी विफलता !स्त्री अपने अस्तित्व को सर्वोपरि रखे, बराबरी की सोच स्वयं को कमजोर करती है। विश्व में दो ही जातियां हैं, पहली स्त्री, दूसरी पुरुष। सफल पुरुष के पीछे स्त्री की विवशता की बात दुखद है। स्त्री की देह से पृथक देखने की दृष्टि विकसित न होना हमारी विफलता है। पितृ सत्ता, खोखले बयान, और छद्म बराबरी की पैरवी करने वालों को बेनकाब करना लेखक का कर्तव्य है। स्त्री की स्थिति में सुधार पुरुष की नजर बदलने पर निर्भर करता है। यह काम स्त्री अपने बेटे को संस्कारित कर कर सकती है।
दोषी स्त्री भी है, क्योंकि वह पुरुष की प्रथम शिक्षिका होने के नाते अपने होने का महत्व पुरुष को नहीं समझा पाती है। कुछ भी हो, अंततः भुगतना स्त्री को ही पड़ता है। स्त्री की प्रगति एक मिथक है, जब तक वह एक देह से व्यक्ति नहीं बनेगी, तब तक मानवता सचमुच सभ्य नहीं होगी। जहां जहां निर्णयात्मक शक्तियां मौजूद हैं, वहां वहां सब जगह स्त्रियों की मौजूदगी होनी चाहिए। स्त्री का जिस्म जिस्म न होकर जंग जीतने का मैदान होता है। एक सफल पुरुष के पीछे एक असफल स्त्री का हाथ होता है। बहार में फूल, खिजां में पत्ते। मौसम चाहे कुछ भी हो, पेड़ को भुगतान ही पड़ता है।
जब तक पुरुष की सोच न बदलें। तब तक स्त्री सुरक्षा की बात करना बेमानी है। स्त्री को नंगा करने वालों की भीड़ में स्त्री का मौजूद रहना उनका मुल्जिम बनाता है। किसी स्त्री की स्थिति उस समाज की उन्नति का मानदंड होती है। परख ना सकोगे, ऐसी शख्सियत है, मैं उन्हीं के लिए हूं, जो जाने कद्र मेरी। स्त्रियों ने कभी भी स्त्रियों को अपनी जगह रखकर नहीं देखा, वरना यह नौबत नहीं आती। इसकी शुरूआत अपने घर से करनी होगी।पूंजीवादी और पुरुष प्रधान नजरिया पीड़ित को अवांक्षित बना देता है। आखिर दूसरे के घृणित अपराध से पीड़ित का क्या दोष।
ऐसी पीड़िताओं से घृणित अपराध को महज एक दुर्घटना मानकर उन्हें सम्मानित कर exposure मिले तो कुछ बदलाव नजरिए में संभव है। स्त्री की शारीरिक संरचना के कारण ही उसे हराया जाता है। कलुषित , संस्कार विहीन दुष्कर्म समस्त नारी जगत का अपमान है। जब तक स्त्रियां संगठित होकर नहीं, सोचेंगी, तब तक कोई परिवर्तन नहीं आएगा। जब तक नारी का अस्तित्व उसकी देह रूपी पिंजरे में कैद रहेगा, तब तक वह कमतर और पराधीन समझी जाएगी। कड़वी सच्चाई यही है कि स्त्री की सफलता एक मिथक है, उसकी पहचान आज भी उसके शरीर तक सीमित है।
सारे गलत काम आवेश में होते हैं। युद्ध पुरुषों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है, इसमें महिलाओं को क्यों घसीटा जाता है। स्त्री की आत्मा उसकी आत्मा है, पुरुष की नहीं, इसलिए उसे प्रताड़ित किया जाता है। स्त्री पुरुष कभी बराबर नहीं हो सकते हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। स्त्री को सदियों से रक्षा योग्य माना गया है, उसे इज्ज़त से जोड़ा गया, ये सब सबकी सुविधानुसार हो रहा है। ये अधर्म है। स्त्री पुरुष के अहम का शिकार होकर तिल तिल मरती है। गुटों में बंटी हुई महिलाएं भी पुरुष मानसिकता में बह जाती हैं। स्त्री के शरीर को लेकर समाज में कुछ नहीं बदला है।
स्त्री का स्वतंत्र आचरण मर्यादा के दायरे का उल्लंघन माना जाता है। त्रुटियां जड़ में हैं, आरंभ नहीं सुधारोगे तो अंत तो यही होगा। सबसे अधिक शिक्षा की जरूरत लड़कों को है। स्त्री का अस्तित्व मातृत्व ही है, नाहक उसकी तुलना पुरुषों में उसके गुण और कार्य क्षेत्र को अपनाकर स्त्री दोहरे बोझ स्वयं पर डालती है और महिला सशक्तिकरण दिवस मनवाती है। दया, वात्सल्य, अन्नपूर्णा एवं शारीरिक बनावट से अनभिज्ञ होकर अपने को पुरुष रूप में साबित करती है, यह अशोभनीय है।
स्त्री का विलोम पुरुष पढ़ाया जाता है। पूरक होना नहीं।
स्त्री स्वयं को कितना ही ऊंचा क्यों न उठा ले, वह अपने जैविक शरीर पर आकर अपने से हार जाती है। वहां पुरुष और स्त्री की शुचिता पर भेदभाव खुद स्त्री करती है और अपने आपको पराजित मानती है। स्त्री अपने लिए अनुकूल माहौल बनाने में अनेक स्तरों पर संघर्षरत है। स्त्री पुरुष प्रथक प्रथक विशिष्टताओं के दो सिरे हैं। सामाजिक नियमावली तय करने वालों ने चालाकी से स्त्री को कमजोर लाचार कराया और अनेक अलंकरणों के मोहपाश में जकड़ दिया है। जहां स्त्रियां निर्णय लेने में स्वतंत्र और सक्षम हैं, वहां समाज बेहतर उन्नति के पथ है और अपराध न्यूनतम है।
पुरुष अर्धनग्न अवस्था में भी सम्मान से चले, स्त्री दुपट्टा खींचे जाने पर मुंह ढककर क्यों बैठ जाती है। स्त्री सत्ता हासिल करने का मुद्दा राजनीति का प्लेटफार्म नहीं होना चाहिए। घिनौनी राजनीति इतनी बदचलन है कि स्त्री महज देह भर मानती है। स्त्री मां के रूप में देह को सिर्फ गढ़ती भर नहीं है, उसमें सपने भी भरती है और पोषित करती है। एक जीवन संगिनी पत्नी के रूप में उसे संपूर्ण बनाती है, अपनी दैहिक, आत्मिक और स्वत्व सौंपकर। एक बहन के रूप में प्रेम की सीमाओं का रेखांकन करके उसका निहितार्थ और पूरी शक्ति का अनुभावक बनाती है, किंतु छिनाल राजनीति की शह पर कलंक कथा उसको प्लॉट बनाती है। पुरुष समाज की कायिक और वैचारिक, सांस्कारिक और सांस्कृतिक शक्तियों का सर्व सम्मत स्रोत बनी नारी उसे लुभाने के लिए, क्या यह सच नहीं है कि वही उसके स्खलन की प्रेरणा स्रोत भी बन सकती है।
स्त्री विमर्श की सीमा में हमें हर पहलू और पक्ष को हर हाल में रखना चाहिए ताकि स्खलित, विकृत, पंकिल, संकुचित और प्रगति विरोधी विचारों को संयमित, संतुलित और संतृप्त किया जा सके। नारी को पुनः अपनी विधाई शक्तियों का ऊर्ध्वगामी स्रोत बनाया जा सके। अगर स्थिति नहीं संभली तो आगे बढ़ने के सारे सपने बेदम हो जाएंगे। दोष स्त्री की कमतर काबिलियत का नहीं है, बात उसके सम्मानजनक अस्तित्व की। उसकी पीड़ा की परतें जख्मों से ज्यादा गहरी हैं। स्त्री पर हुई जघन्यता दिखती है पर उसकी पीड़ा समझ में नहीं आती है। पीड़ित स्त्री मन के भाव जीवन भर रिसते रहते हैं।जो उसके साथ बर्बरता करते हैं, वे सब इसी ग्रह के वासी हैं।
समानता की मांग 'बेटों को संस्कार दो, संवेदनशील बनाओ', तभी बेटियों की शिक्षा या उनके सपनों का कोई अर्थ होगा। बेटों को संभालिए, बेटियां खुद व खुद संभल जाएंगी, बच जाएंगी। स्त्री की अस्मिता पर हमला उसमें आत्मनकारता का भाव पैदा करता है। उसमें मैं हार गई की भावना बलवती होती है और वह शारीरिक पीड़ा से अधिक मन की पीड़ा में डूब जाती है। जब उसके आत्मसम्मान का तार टूटता है तो उसका विश्वास बुरी तरह जख्मी हो जाता है। तब वह असंख्य घायल और नेस्तनाबूद मन से वो जब अपनों के पास आती है तो इस स्थिति से निकलने के लिए जरूरी सहानुभूति और परवाह कम मिलती है।
लड़की अपने टूटे मन और घायल शरीर को तथाकथित आरोपों के भय से छुपा लेती है। लकड़ियां खुद के लिए कोई सुख नहीं चाहती हैं। वे सोचती हैं कि वे किसी भी तरह की खुशी के लायक नहीं हैं। वे स्वयं एवं हालात पर क्रोधित होती हैं। स्थितियों के आगे समर्पण करना आत्मघात के रूप में सामने आता है। अपनों पर भरोसा खत्म तो दुनिया जीने के लायक नहीं लगती है। पीड़ा का सदमा तो होता ही है, मन व शरीर पर हुए हमले को तुरंत नहीं मिटाया जा सकता है। सर्वाइवर का अपने जीवन को पुनः स्वीकार कर लेना सबसे अहम व जरूरी है।
स्त्री पुनः खड़ी होना भी चाहे तो उसे लोगों की नजरें, अपनों के ताने व समाज की कानाफूसी बार बार गिरा देती है। स्त्री दर्द का सफर खत्म करने में कोई मदद नहीं करना चाहता है। सच तो यह है कि हजारों वार सहकर भी जो जी गई, वो जीत गई। जिस दुराचारी ने हर तरफ से हमला करके उसे मिटाना चाहा, उसे लगा कि वह विजेता है, लेकिन वह पराजित है, अपराधी है।
प्राचार्य, शासकीय महाविद्यालय चांद छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश। M/7898740446
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